झारखंड में इसी दिन मनाया जाता टुसू पर्व, जानें महत्व और परंपराएं
हमारे राष्ट्र में प्रचलित प्रत्येक त्योहार का एक वैज्ञानिक कारण है। प्रत्येक साल जनवरी माह की प्राय: 14 तारीख को दोपहर के बाद शाम या रात्रि में सूर्य का मकर राशि में प्रवेश होता है, ऐसे में उदयातिथि के मुताबिक अगले दिन यानी 15 जनवरी को मकर संक्रांति मनायी जाती है। इस दिन से ही मौसम में परिवर्तन प्रारंभ होता है। इस दिन तिल-गुड़ और अनाज दान करने का विशेष महत्व है। सूर्योदय के पूर्व स्नान करके तिल-गुड़ और अनाज का दान और खिचड़ी खाने का पौराणिक विधान है।
मिथिलांचल में मकर संक्रांति को ‘तिला संक्रांति’ के नाम से जाना जाता है। इसमें क्या बच्चे और क्या बड़े, सूर्योदय के पूर्व स्नान करके आते हैं। फिर ब्राह्मणों को तिल और अनाज का दान करते हैं। ब्राह्मणों को दान देने के बाद आसपास के पिछड़े, गरीब परिवारों को तिल-गुड़ के लड्डू, चूड़ा और मुरही के लाई, खिचड़ी के लिए अनाज एवं सब्जियां तथा गर्म कपड़े गृहस्थ जन अपनी हैसियत के मुताबिक दान करते हैं।
मुझे (लेखक को) अपना बचपन याद आ रहा है जब मां प्रातः चार बजे ही जगा देती थीं, फिर हम नदी में स्नान करने के लिए जाते थे। घर से नदी की दूरी आधा किलोमीटर से भी कम थी। कड़कड़ाती ठंड में नदी में स्नान करना होता था, लेकिन स्नान कर नदी से आने के बाद आग का घूर तैयार मिलता था। आंगन में आग तापते हुए हम लाई, चुड़लाई और तिलबा (तिल-गुड़ के लड्डू) का आनंद लेते थे। उस दिन कुल देवता के सम्मुख तिल-गुड़ और अरवा चावल का भोग लगता था। मां, दादी एवं अन्य बड़ी-बुजुर्ग महिलाएं प्रसाद का तिल-गुड़ और अरवा चावल थोड़ा-थोड़ा तीन बार मुख में डालते और हर बार पूछतीं
नव-विवाहिताओं का भतराइस पर्व
तिल संक्रांति के अतिरिक्त मिथिलांचल में इसी दिन नव-विवाहिताओं के लिए एक पर्व मनाया जाता है, जिसे ‘भतराइस’ कहते हैं। यह पर्व शादी के प्रथम साल से लेकर पांच साल तक मनाया जाता है। नव- विवाहिताओं के प्रथम साल में इसकी आरंभ होती है। वह मायके में हों या ससुराल में, उसे एक दिन पहले स्नान-पूजा करके सात्विक भोजन करना होता है। भगवती गीत गाकर पूजा के लिए गौड़ी-नैवेद्य (प्रसाद) बनाया जाता है, हल्दी का गौड़ गढ़ा जाता है। यह प्रसाद मायके में रहने से मां, भाभी या बड़ी बहन बनाती हैं और ससुराल में सासू मां, जेठानी या विवाहिता ननद। संजीत वाले दिन वधू ससुराल का अनाज ही खाती है, इसलिए ससुराल से आने वाला संदेश जिसमें वधू के लिए पूजा के वस्त्र, उसके संयत के दिन खाने के लिए सामग्री, उसके परिवार की सभी स्त्रियों के लिए वस्त्र, पूजन सामग्री एवं संदेश के रूप में अनेक तरह के पकवान, फल एवं मिठाइयां होती हैं।
पूजा के दिन वधू निराहार रहती है। संध्या समय भतराइस पर्व होता है। गौरी महादेव की पूजा की जाती है। 25 प्रकार के अनाज की डेरी लगायी जाती है। पकवान से थाल सजा रहता है, जिसमें भोजन के रूप में 25 तरह की सब्जियां होती हैं। इस थाल को करोतरि बोला जाता है। पूजा के पास अनाथ पूजा के बाद अनाज की ढेरियों और करोतरि को चांदी के सिक्के से देवर अथवा भाई द्वारा काटा जाता है। पूजा में मिट्टी और बांस के बर्तन जो 25-25 की संख्या में होते हैं, उनका उत्सर्ग किया जाता है।
वधू अगले दिन से प्रातः एवं संध्या पूजन करती है। पूजन गोबर से बनायी गयी अल्पना पर अरवा चावल के पीले और सफेद चूर्ण से किया जाता है। शाम के पूजन को ‘संध्या-पूजन’ और प्रातः पूजन को ‘तुषारी-पूजन’ कहते हैं। तुषारी-पूजन सवा माह तक होता है और संध्या-पूजन पूरे एक साल होता है। अगले साल पुनः भतराइस पर्व करके तब संध्या-पूजन खत्म होता है।
इस पर्व का निस्तार या समाप्ति तीसरे अथवा पांचवें साल में होता है। कुछ परिवार तीसरे साल में ही निस्तार करवा देते हैं और कुछ पांच साल तक पूजा करवा कर। लोगों की व्यस्त होती जीवन और अब लड़कियों के भी जॉब में आने के कारण धीरे-धीरे यह पर्व समाप्ति की ओर बढ़ रहा है। सवा माह तुषारी-पूजन और एक साल के संध्या-पूजन के कारण अधिकांश विवाहिताएं इस पर्व को करने में अपने को असमर्थ पाती हैं। कुछ परिवार जो अभी भी इसे करना चाहते हैं, वे वधू की सहूलियत के लिए प्रथम साल में ही निस्तार करवा देते हैं। समय के साथ हर पूजा का स्वरूप भी बदलता दिख रहा है।
झारखंड में टुसू पर्व
मकर संक्रांति के दिन ही झारखंड में टुसू पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। झारखंड के पंच परगना क्षेत्र का यह जरूरी पर्व है। राजा के अन्याय के खिलाफ किसानों के साथ खड़ी हुई कुंवारी बाला टुसू को श्रद्धांजलि देने के लिए यह पर्व मनाया जाता है। उस युद्ध में राजा द्वारा पकड़ लेने की संभावना से ग्रसित होकर टुसू ने नदी में कूद कर जल समाधि ले ली थी। अगहन संक्रांति को टुसू की मूर्ति बनायी जाती है। मूर्ति की पूजा कुमारी कन्याएं करती हैं। एक माह बाद मकर संक्रांति के दिन मुख्य उत्सव मनाया जाता है। उस दिन मेला लगता है। रात्रि जागरण कर लोग नाचते-गाते हैं और अगले दिन टुसू देवी की प्रतिमा का विसर्जन कर देते हैं। इस पर्व से जुड़ी दिलचस्प बात है कि मेरे पोते का जन्म इसी समय हुआ था, अत: हम उसे ‘टुसू’ ही बुलाते हैं। तब रांची में हॉस्पिटल के पीछे टुसू मेला लगा हुआ था, अत: हमने बच्चे का नाम ‘टुसू’ रख दिया