मथुरा में रामलीला मंचन की शुरुआत करीब 180 वर्ष पूर्व
यूं तो ब्रज में रासलीला की परंपरा रही है, लेकिन यहां की रामलीला की भी दुनियांभर में अलग ही पहचान है। रामलीला सभा द्वारा यहां होने वाली रामलीला को उसकी मर्यादा के लिए भी पहचाना जाता है। दरअसल, करीब 180 साल पूर्व बिहार से आई एक मंडली द्वारा छावनी क्षेत्र में रामलीला का मंचन किया गया था। इस मंचन के बाद गऊघाट निवासी वागभट्ट जी ने मथुरा में रामलीला की नींव रखी। उस समय असकुंडा निवासी प्रख्यात तांत्रिक और वैद्य राधाकृष्ण स्वामी के और महानगर के कुछ प्रमुख लोगों को साथ लेकर रामलीला मंचन की रूपरेखा तय की गयी। कुछ सालों तक रामलीला का मंचन होता रहा। इसके बाद स्वामी राधाकृष्ण ने इस रामलीला को तंत्र-मंत्र से सिद्ध कर दिया, ताकि इसके मंचन में कहीं भी व्यवधान न आए। बोला जाता है कि मथुरा की रामलीला के मंचन में आज तक व्यवधान नहीं हुआ। यह लीला कभी भी बीच में नहीं रुकी। भारत-पाक युद्ध के समय भी लीला का मंचन होता रहा। कोरोनाकाल में भी चित्रकूट स्थित लीला मंच पर रामलीला मंचन के पाठ का आयोजन करते हुए इस परंपरा का निर्वहन किया गया।
स्वामी राधाकृष्ण द्वारा सिद्ध की गई मथुरा की रामलीला में वर्ण बंधन का खासा महत्व है। यह परंपरा स्वामी राधाकृष्ण ने शुरु की थी, जो आज भी अनवरत चल रही है। रामलीला मंचन से पूर्व रामलीला से जुड़े समस्त स्वरूप और पात्रों के साथ-साथ रामलीला मंचन से जुड़ा प्रत्येक आदमी इस वर्ण को बांधता है। वर्ण बांधने के पीछे रामलीला के मंचन में किसी भी तरह का व्यवधान उत्पन्न न होना है। मथुरा की रामलीला के मेरे पूर्वज वैद्य स्वामी राधाकृष्ण ने तंत्र-मंत्र से सिद्ध किया था। हम उनकी चौथी पीढ़ी में आते हैं। आज भी स्वामी राधाकृष्ण द्वारा स्थापित परंपरा का निर्वहन किया जा रहा है। मथुरा की रामलीला सिद्ध लीला है। इसकी अपनी अलग परंपरा रही है। यह मर्यादित लीला है। मथुरा की रामलीला में साक्षात ईश्वर राम विराजते हैं। इस रामलीला से मंचन से अनेक करिश्मा भी जुड़े हुए हैं। मथुरा में रामलीला मंचन की आरंभ करीब 180 साल पूर्व हुई थी।