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जानें, राजा दशरथ के मित्र जटायु के संबंध में कुछ रोचक तथ्य

अयोध्या में राम मंदिर में रामलला की प्राण प्रतिष्ठा से पहले जनपद की सीमा में गिद्धों का झुंड दिखाई दिया है. क्षेत्रीय लोग इसे गिद्धराज जटायु से जोड़कर देख रहे हैं. वे इसे शुभ संकेत भी मान रहे हैं. गांव वालों का बोलना है कि पिछले 20 सालों से हम लोगों ने क्षेत्र में गिद्ध नहीं देखे. आओ जानते है जटायु की ऐसी कहानी जो आपने ने नहीं पढ़ी होगी.
  • अरुण के पुत्र और ईश्वर गरूड़ के भतीजे थे जटायु.
  • संपाती के भाई और दशरथ के मित्र थे जटायु.
  • जटायु को श्रीराम की राह में शहीद होने वाला पहला सैनिक माना जाता है.

1. कौन थे जटायु : रामायण काल में पक्षियों की जरूरी किरदार रही है. एक और जहां कौए के आकार के काक भुशुण्डी की चर्चा मिलती है तो दूसरी ओर देव पक्षी गरूड़ और अरुण का उल्लेख भी मिलता है. गरूढ़ ने ही श्रीराम को नागपाश मुक्त कराया था. इसके बाद सम्पाती और जटायु का विशेष उल्लेख मिलता है. जटायु को श्रीराम की राह में शहीद होने वाला पहला सैनिक माना जाता है. जिस समय रावण माता सीता का हरण कर आकाश मार्ग से लंका की ओर पुष्पक विमान से जा रहा था, तब जटायु ने रावण को चुनौती देते हुए सीताजी को छुड़ाने के लिए रावण से संघर्ष किया था. रावण ने अपनी तलवार से जटायु के दोनों पंख काट दिए थे. जब राम सीता की खोज में दंडकारण्य वन की ओर बढ़े तो उन्हें घायल हालत में जटायु मिला था. घायल जटायु ने ही कहा था कि रावण सीताजी का हरण कर दक्षिण दिशा की ओर ले गया है. उसके बाद जटायु ने राम की गोद में ही प्राण त्याग दिए थे. जटायु के मरने के बाद राम ने उसका वहीं आखिरी संस्कार और पिंडदान किया.

 

2. अरुण के पुत्र थे जटायु : उल्लेखनीय है कि वाल्मीकि रामायण में सम्पाति और जटायु को किसी पक्षी की तरह चित्रित नहीं किया गया है, लेकिन रामचरित मानस में यह भिन्न है. रामायण मुताबिक जटायु गृध्रराज थे और वे ऋषि ताक्षर्य कश्यप और विनीता के पुत्र थे. गृध्रराज एक गिद्ध जैसे आकार का पर्वत था. राम के काल में सम्पाती और जटायु नाम के दो गरूड़ पक्षी थे. ये दोनों ही देव पक्षी अरुण के पुत्र थे. गुरुढ़ ईश्वर के भाई अरुण थे. दरअसल, प्रजापति कश्यप की पत्नी विनता के दो पुत्र हुए- गरूड़ और अरुण. गरूड़जी विष्णु की शरण में चले गए और अरुणजी सूर्य के सारथी हुए. सम्पाती और जटायु इन्हीं अरुण के पुत्र थे.

 

3. कहां रहते थे जटायु : पुराणों के मुताबिक सम्पाती और जटायु दो गरुढ़ बंधु थे. सम्पाती बड़ा था और जटायु छोटा. ये दोनों विंध्याचल पर्वत की तलहटी में रहने वाले निशाकर ऋषि की सेवा करते थे और संपूर्ण दंडकारण्य क्षेत्र विचरण करते रहते थे. एक ऐसा समय था जबकि महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में गिद्ध और गरूढ़ पक्षियों की संख्या अधिक थी लेकिन अब नहीं रही.

 

4. जटायु और सम्पाती की होड़ : बचपन में सम्पाती और जटायु ने सूर्य-मंडल को स्पर्श करने के उद्देश्य से लंबी उड़ान भरी. सूर्य के असह्य तेज से व्याकुल होकर जटायु जलने लगे तब सम्पाति ने उन्हें अपने पक्ष ने नीचे सुरक्षित कर लिया, लेकिन सूर्य के निकट पहुंचने पर सूर्य के ताप से सम्पाती के पंख जल गए और वे समुद्र तट पर गिरकर चेतनाशून्य हो गए. चन्द्रमा नामक मुनि ने उन पर दया करके उनका इलाज किया और त्रेता में श्री सीताजी की खोज करने वाले वानरों के दर्शन से पुन: उनके पंख जमने का आशीर्वाद दिया.

5. राजा दशरथ के मित्र थे जटायु : जब जटायु नासिक के पंचवटी में रहते थे तब एक दिन आखेट के समय महाराज दशरथ से उनकी मुलाकात हुई और तभी से वे और दशरथ मित्र बन गए. वनवास के समय जब ईश्वर श्रीराम पंचवटी में पर्णकुटी बनाकर रहने लगे, तब पहली बार जटायु से उनका परिचय हुआ.

 

6. सम्पाती ने सैंकड़ों किलोमीट से माता सीता को देख लिया था : जामवंत, अंगद, हनुमान आदि जब सीता माता को ढूंढ़ने जा रहे थे तब मार्ग में उन्हें बिना पंख का विशालकाय पक्षी सम्पाति नजर आया, जो उन्हें खाना चाहता था लेकिन जामवंत ने उस पक्षी को रामव्यथा सुनाई और अंगद आदि ने उन्हें उनके भाई जटायु की मौत का समाचार दिया. यह समाचार सुनकर सम्पाती दुखी हो गया.

 

7. जटायु का तप स्थल जटाशंकर : मध्यप्रदेश के देवास जिले की तहसील बागली में ‘जटाशंकर’ नाम का एक जगह है जिसके बारे में बोला जाता है कि जटायु वहां तपस्या करते थे. कुछ लोगों के मुताबिक यह ऋषियों की तपोभूमि भी है और सबमें बड़ी विशेषता की यहां स्थित पहाड़ के ऊपर से शिवलिंग पर अनवरत जलधारा बहती हुई नीचे तक जाती है जिसे देखकर लगता है कि शिव की जटाओं से धारा बह रही है. संभवत: इसी कारण इसका नाम जटा शंकर पड़ा होगा. बागली के पास ही गिदिया खोह है जहां कभी हजारों की संख्‍या में गिद्ध रहा करते थे.

 

8. जैन धर्मानुसार : जैन धर्म मुताबिक राम, सीता तथा लक्ष्मण दंडकारण्य में थे. उन्होंने देखा- कुछ मुनि आकाश से नीचे उतरे. उन तीनों ने मुनियों को प्रणाम किया तथा उनका आतिथ्य किया. वहां पर बैठा हुआ एक गरूढ़ उनके चरणोदक में गिर पड़ा. साधुओं ने कहा कि पूर्वकाल में दंडक नामक एक राजा था किसी मुनि के संसर्ग से उसके मन में संन्यासी रेट उदित हुआ. उसके राज्य में एक परिव्राजक था. एक बार वह अंत:पुर में रानी से वार्ता कर रहा था राजा ने उसे देखा तो दुश्चरित्र जानकर उसके गुनाह से सभी श्रमणों को मरवा डाला.

 

एक श्रमण बाहर गया हुआ था. लौटने पर समाचार ज्ञात हुआ तो उसके शरीर से ऐसी क्रोधाग्नि निकली कि जिससे समस्त जगह भस्म हो गया. राजा के नामानुसार इस जगह का नाम दंडकारगय रखा गया. मुनियों ने उस दिव्य ‘गरूढ़’ की सुरक्षा का भार सीता और राम को सौंप दिया. उसके पूर्व जन्म के संबंध में बताकर उसे धर्मोपदेश भी दिया. रत्नाभ जटाएं हो जाने के कारण वह ‘जटायु’ नाम से विख्यात हुआ.

 

संदर्भ 

– वाल्मीकि रामायण, किष्किंधा कांड

– महाभारत, वनपर्व (282-46-57)

– जैन श्रुति एवं मान्यता

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