पढ़िए आध्यात्मिक भारत की नींव रखने वाले आदि शंकराचार्य की अनसुनी कहानी

शंकराचार्य के माता-पिता ने उनके जन्म के लिए सालों तक भगवान शिव की तपस्या की थी. जिसके बाद इस बालक का जन्म हुआ. लेकिन जन्म के कुछ वर्षों बाद ही शंकराचार्य मां से आज्ञा लेकर संन्यासी बन गए. संन्यासी बनने के बाद भी लेकिन शंकराचार्य ने अपनी मां का दाह संस्कार किया.
5 नवंबर 2021 की बात है, उत्तराखंड के केदारनाथ धाम में राष्ट्र के पीएम मोदी बाबा केदार का रुद्राभिषेक करते हैं और फिर श्री आदि शंकराचार्य की मूर्ति का अनावरण करते हैं. आपको याद होगा कि केदारनाथ में वर्ष 2013 में आये जल प्रलय ने विशाल तबाही मचाई थी. जिसके बाद आदि शंकराचार्य की समाधि को हानि भी पहुंचा था. बाद में मूर्ति को फिर से स्थापित किया गया. भगवान भोले के भक्त पीएम मोदी ने स्वयं ही आदि शंकराचार्च की मूर्ति का मॉडल चुना था. फिर उस मूर्ति का अनावरण किया गया. इस दौरान पीएम ने समाधि स्थल पर ध्यान भी किया. आज के मातृभमि के इस स्पेशल एपिसोड में आपको आदि गुरु शंकराचार्य की पूरी कहानी आपको बताएंगे. हिंदुस्तान भ्रमण कर शंकराचार्य ने हिंदुस्तान साल के चार कोनों में चार मठों की स्थापना की थी. आइए जानते हैं आदि शंकराचार्य की संपूर्ण कथा.
सत्य की जांच क्या है? यह दृढ़ विश्वास है कि आत्मा असली है और उसके अतिरिक्त सब कुछ असत्य है. यह सुंदर दार्शनिक उद्धरण हिंदुस्तान के सबसे सम्मानित दार्शनिक उपदेशों में से एक है. ये विचार आदि गुरु शंकराचार्य के हैं. आज की कहानी उस महान संयासी की जिनकी लिखी पुस्तकों को हममें से बहुत कम लोगों ने पढ़ा है. जिनके लिखे स्लोक उससे भी कम लोग जानते हैं. लेकिन जब प्रश्न जीवन और मौत का हो. आदमी और उसके ईश्वर के बीच के संबंधों का हो. उसी संयासी के विचार 100 करोड़ से अधिक लोगों के विचार बन जाते हैं. जब एक सियासी हिंदुस्तान की स्थान अध्यात्मिक हिंदुस्तान की चर्चा होती है, तब इसी महामानव की याद आती है यानी जगत गुरु आदि शंकराचार्य की.
आध्यात्मिक हिंदुस्तान की रुप रेखा
उत्तर में हिमालय की गोद में ज्योर्तिमठ, पश्चिम में द्वारका मठ, दक्षिण में श्रृंगेरी मठ और पूर्व में गोवर्धन मठ. इस आत्यात्मिक हिंदुस्तान के पीछे जिनकी सोच है उन्हें ही जगत गुरु आदि शंकराचार्च कहते हैं. आदि शंकराचार्य एक बौद्धिक दिग्गज, भाषा विज्ञान के प्रतिभाशाली और सबसे बढ़कर आध्यात्मिक प्रकाश के गौरव थे. कम उम्र में ही उन्होंने जिस स्तर के ज्ञान का परिचय दिया, उसने उन्हें संपूर्ण इन्सानियत के लिए एक प्रकाश पुंज सरीखा बना दिया. रक्षा, सामाजिक, सांस्कृति एकता, आध्यमिकता की दृष्टि हर स्तर पर उनका प्रयोग सफल रहा.
कौन थे आदि शंकराचार्य
सातवी-आठवीं सदी में हिंदुस्तान भूमि विभिन्न मतों, संप्रदायों और धर्मावलंबियों की धरती में परिणत हो चुकी थी. यही काल बौद्ध और जैन धर्म का उत्कर्ष काल भी था. बौद्ध और जैन की जड़ें उपनिषेद दर्शन में ही मिलती हैं. एक विलक्षण बालक और लगभग अलौकिक क्षमताओं वाला एक असाधारण विद्वान था. दो वर्ष की उम्र में ही वे धाराप्रवाह संस्कृत बोल और लिख सकते थे. चार साल की उम्र में वे सभी वेदों का पाठ कर सकते थे और बारह साल की उम्र में उन्होंने सन्यास ले लिया और अपना घर छोड़ दिया. इतनी कम उम्र में भी, उन्होंने शिष्यों को इकट्ठा किया और आध्यात्मिक विज्ञानों को फिर से स्थापित करने के लिए पूरे राष्ट्र में घूमना प्रारम्भ कर दिया. शंकराचार्च को चार मठों की स्थापना करने के लिए जाना जाता है. वैशाख मास के शुक्लपक्ष की पंचमी तिथि को उनकी जयंती मनायी जाती है. केरल में जन्मे आदि शंकराचार्य ईसी पूर्व 8 वीं शताब्दी के भारतीय आध्याम्तिक धर्म गुरु थे. उस दौरान भिन्न मतों में बंटे हिंदू धर्मों को जोड़ने का काम किया. उन्होंने पूरे हिंदुस्तान की पैदल यात्रा की जिसका मकसद हिंदुस्तान को धार्मिक और आध्यात्मिक तौर पर एक करना था. शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र बचा होगा जहां की यात्रा आदि शंकराचार्य ने न की हो. उन्होंने हिंदुस्तान के हर कोने में भिन्न-भिन्न संप्रदायों और विद्धानों से शास्त्रार्थ किया और धर्म विजय की नींव रखी. उन्होंने अद्वैत वेदांत के सिद्धांत को समेकित किया और पूरे हिंदुस्तान में चार मठ की स्थापना की.
इस वजह से कहलाए शंकराचार्य
शंकराचार्य के माता-पिता ने उनके जन्म के लिए सालों तक भगवान शिव की तपस्या की थी. जिसके बाद इस बालक का जन्म हुआ. लेकिन जन्म के कुछ वर्षों बाद ही शंकराचार्य मां से आज्ञा लेकर संन्यासी बन गए. संन्यासी बनने के बाद भी लेकिन शंकराचार्य ने अपनी मां का दाह संस्कार किया. समय के साथ शंकर नाम का ये बालक जगदगुरु शंकराचार्य कहलाया. शंकराचार्य ने बचपन में ही वेदों का पूरा ज्ञान प्राप्त कर लिया था. उन्होंने मात्र 16 साल की उम्र में 100 से भी अधिक ग्रंथों की रचना की थी.
कैसे आदि शंकराचार्य एक मृत राजा के शरीर में प्रवेश कर गए
भगवान शिव के अवतार शंकराचार्य को अनेक सिद्धियां प्राप्त थीं. एक बार मंडन मिश्र से इनका शास्त्रार्थ हुआ, वे उसमें जीत गए. फिर उनकी पत्नी बीच में आ गईं. शंकराचार्य से मंडन मिश्र की पत्नी ने बोला कि आपने मेरे पति को हरा दिया, पर वे अपने आप में पूरे नहीं हैं. हम दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं. इसलिए आपको मुझसे भी बहस करनी होगी. स्त्री के साथ बहस प्रारम्भ हो गई. फिर उसने देखा कि वो हार रही है, तो उसने कामशास्त्र पर कुछ प्रश्न कर दिए. शंकराचार्य ने कुछ उत्तर दिए. फिर वो और भी गहराई में चली गई, और पूछने लगी आप अपने अनुभव से क्या जानते हैं? पर, शंकराचार्य ब्रह्मचारी थे. वे समझ गए कि ये उन्हें हराने की तरकीब है. तो वे कहे – “मुझे एक महीने का समय चाहिए. हम एक महीने के बाद इस बहस को यहीं से आगे बढ़ाएंगे. फिर वे एक गुफा में गए और अपने शिष्यों से कहे – “चाहे जो हो जाए, किसी को भी इस गुफा में आने मत देना, क्योंकि मैं अपना शरीर छोड़कर, कुछ समय के लिए अन्य संभावनाओं की तलाश पर जा रहा हूँ. । फिर ऐसा हुआ, कि एक राजा को एक कोबरा ने काट लिया और वो मर गए. जब शरीर में कोबरा का विष घुस जाता है, तो खून गाढ़ा होना प्रारम्भ हो जाता है, जिससे रक्तसंचार कठिनाई हो जाता है, जिसकी वजह से सांस लेने में मुश्किल होती है. क्योंकि रक्तसंचार के कठिनाई हो जाने पर, साँसें लेने में कठिनाई होती है. तो शंकराचार्य को ये अवसर मिला और उन्होंने बहुत सरलता से उनके शरीर में प्रवेश कर लिया. कुछ समय तक उस शरीर में रहकर शंकराचार्य ने गृहस्थ का जीवन बिताया. फिर राजा के शरीर को छोड़कर वापस अपने शरीर में लौट आए. इसके बाद इन्होंने भारती के प्रश्नों का उत्तर दिया.
आदि शंकराचार्य और बद्रीनाथ मंदिर
बद्रीनाथ का ऐतिहासिक महत्व है क्योंकि यहां मंदिर आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित किया गया था. उन्होंने वहां अपने लोगों को बसा लिया. आज भी, उनके द्वारा स्थापित परिवारों के वंशज परंपरागत रूप से नंबूदिरी मंदिर में पुजारी हैं. कलादी से बद्रीनाथ की दूरी पैदल मार्ग से तीन हजार किलोमीटर से अधिक है. आदि शंकराचार्य इतनी दूर चले.
आदि शंकराचार्य की माता की मृत्यु
शंकराचार्य जी की माता को स्नान करने के लिए पूर्णा नदी तक जाना पड़ता था, यह नदी गांव से बहुत दूर बहती थी। शंकराचार्य जी की मातृ भक्ति देखकर नदी ने भी अपना रुख उनके गांव कालड़ी की ओर मोड़ दिया था. एक बार जब आदि शंकराचार्य उत्तर में थे, तो उन्हें सहज रूप से पता चला कि उनकी मां की मौत होने वाली है. बारह वर्ष की उम्र में उनकी मां ने उन्हें सन्यास लेने की अनुमति तभी दी थी, जब उन्होंने उनसे वादा किया था कि वह उनकी मौत के समय उनके साथ रहेंगे. इसलिए जब उन्हें पता चला कि उनकी मां बीमार हैं, तो वह उनकी मृत्युशय्या के पास रहने के लिए केरल वापस चले गए. उन्होंने अपनी माँ के साथ कुछ दिन बिताए और उनके मृत्यु के बाद वह फिर से उत्तर की ओर रुख किया. जब आप हिमालय की यात्रा करेंगे, तो आपको आश्चर्य होगा कि कोई इस पर कैसे चल सकता है.
आज की दुनिया में आदि शंकराचार्य की प्रासंगिकता
इस आध्यात्मिक ज्ञान को पहाड़ों से उतरकर शहरों, कस्बों, गांवों और सबसे बढ़कर लोगों के दिलों और दिमागों में उतरने की आवश्यकता है. ये समय इस संस्कृति को वापस लाने का है. इस धर्मपरायणता और विनम्रता की भावना जिसने हमें भारी लाभांश दिया है. यही हमारी ताकत रही है, यही हमारा उपाय रहा है, यही हमारे विकास और प्राप्ति की प्रक्रिया और पद्धति रही है. यही सबसे बड़ा खजाना होने जा रहा है. यही राष्ट्र का भविष्य बनने जा रहा है. यदि हम ये एक काम कर लें तो पूरी दुनिया हमसे मार्गदर्शन मांगेगी.