उत्तराखण्ड

इन दिनों उत्तराखंड के पूरे पहाड़ मां के जयकारों से गूंज रहे, अनूठी है यहां की मान्यता

 गौचर इन दिनों उत्तराखंड के पूरे पहाड़ मां के जयकारों से गूंज रहे हैं, जहां एक ओर नंदा लोकजात अपने आखिरी पड़ाव की ओर बढ़ रही है, वहीं जिले के अन्य स्थानों में मां के अन्य रूपों को ससुराल से मायके बुलाना और मायके से ससुराल भेजने का क्रम जारी है मां कालिंका चमोली जिले के गौचर के 7 गांवों कीआराध्य देवी हैं और सभी गांव वाले मां को ध्याणी के रूप में पूजते हैं

इन दिनों मां कालिंका अपने मैत (मायके) आई हुई हैं, जिसमें सभी मैतियों ने मां का भव्य स्वागत किया अपनी बेटी को तीन दिनों तक मैत में रखकर चौथे दिन उनके ससुराल भट्टनगर विदा किया जाएगा पुजारी नागेंद्र शास्त्री बताते हैं कि मां कालिंकागौचर के सात गांवों की आराध्य देवी हैं, जिनमें से गौचर मांडा पनाई सेरा मां का मायका और गौचर भट्टनगर मां का ससुराल है

इस तरह होती है माता की पूजा
प्रतिवर्ष भाद्रपद के महीने मां को ससुराल से मायके लाया जाता है, जिसमें मां को लेने के लिए उनके भाई रावल (लाटू देवता) अपनी बहन को लेने के लिए उनके ससुराल जाते हैं जिसके बाद मां अपने भाई के साथ अपने मायके आती हैं, जिसमें बड़ी संख्या में मां के मैती मां का स्वागत उल्लास के साथ करते हैं और मां को उनके मायके में ध्याणी के रूप रखा जाता है तीन दिनों तक मां अपने मायके में रहती हैं इस दौरान लगातार पूजा, हवन, जागरण इत्यादि होता है

मां के दर्शन से काम की शुरुआत
तीन दिन बाद माता को समौंण (काखड़ी और मुगरी) उपहार के रूप में दी जाती है मां को सभी क्षेत्रवासी नम आंखों से एक बेटी के समान ससुराल विदा करते हैं क्षेत्रीय पुजारी शक्ति प्रसाद देवली बताते हैं कि मां कालिंका रानीगढ़ क्षेत्र की आराध्य देवी हैं मां गौचर के सात गांवों के लोग मां के दर्शनों से ही अपने काम की आरंभ करते हैं और मां निश्चित रूप से सभी की मनौतियों को पूरी करती हैं

1975 से पहले बलिप्रथा का था रिवाज
पुजारी आगे बताते हैं कि 1975 से पहले मंदिर में बलिप्रथा दी जाती थी, लेकिन 1975 के बाद अहिंसा की भावना को अपनाकर इस प्रथा को समाप्त कर दिया गया और वर्तमान समय में श्री फल से पूजा की जाती है

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