नेपोटिज्म के मुद्दे पर बोले डायरेक्टर संतोष सिंह…
फिल्म ‘फाइटर’ और ‘ऑपरेशन वैलेंटाइन’ के बाद अब लोगों के सामने ‘बालाकोट एयर स्ट्राइक’ की कहानी वेब सीरीज ‘रणनीति: बालाकोट एंड बियॉन्ड’ में आने वाली है. संतोष सिंह के डायरेक्शन में बनी इस सीरीज में लारा दत्ता, आशुतोष राणा, आशीष विद्यार्थी, जिमी शेरगिल, प्रसन्ना और कई सितारे अहम किरदार में नजर आएंगे. हाल ही में डायरेक्टर संतोष सिंह ने मीडिया से खास वार्ता के दौरान नेपोटिज्म और आउटसाइडर्स के मामले को फालतू डिबेट बताया.
‘रणनीति: बालाकोट एंड बियॉन्ड’ के बारे में बताएं, यह किस तरह की सीरीज है ?
यह सीरीज 2019 की पुलवामा अटैक पर बेस्ड है. पुलवामा अटैक कैसे हुआ, उसके पीछे क्या हुआ था ? पुलवामा अटैक का हमने बालाकोट हड़ताल करके कैसे उत्तर दिया. पाक ने कैसे उस पर उत्तर दिया. हमारे पायलट कैसे वहां पकड़े गए और उन्हें वापस लेकर कैसे आएं. इस सभी घटनाओं को हमने 9 एपिसोड में इंटरेस्टिंग ढंग से दिखाया गया है. हर एपिसोड लगभग 30 – 35 मिनट के होंगे.
ये लोग बड़े कद्दावर और मंझे हुए कलाकार हैं. ऐसे कलाकारों के साथ काम करने में बहुत अधिक मजा आया. इनको आप एक चीज बोलो तो दस चीज करके दिखाते थे. ऐसा लगता था कि सभी इतने बड़े सीनियर और बड़े कलाकार हैं. इनको कैसे कंट्रोल किया जाएगा ? लेकिन ये ऐसे कलाकार हैं कि सेरेण्डर कर देते हैं. जैसे मैंने चाहा वैसे काम किया.
इस सीरीज में सबसे चैलेंजिंग पार्ट क्या रहा है ?
इस सीरीज में सबसे चैलेंजिंग पार्ट रिसर्च ही रहा है. ऐसा नहीं था कि इस घटना पर कोई पुस्तक लिखी गई है. जो भी हमें पता चला है वो खबरों के माध्यम से पता चला है. हमने न्यूज आर्टिकल पढ़े, इसके अतिरिक्त जिन लोगों को भी इस घटना के बारे में पता था सबसे मिला. रियल लोकेशन पर गए . वहां के लोकल लोगों से बात की. इस तरह से बहुत सारे डाटा इकट्ठा किया और अपनी राइटिंग टीम को दिया. सबने मिलकर बहुत मेहनत की .
हमने इस विषय पर सबसे पहले काम प्रारम्भ कर दिया था. इसको पिछले वर्ष 15 अगस्त पर ही लाने वाले थे. लेकिन इस सीरीज में बहुत सारे वीएफएक्स थे, जिस पर बहुत काम करना था. फाइटर और ऑपरेशन वैलेंटाइन जैसी फिल्मों में सभी ने अपने हिसाब से उस वर्जन को दिखाया है. मैं सोचता हूं कि हमारा उनसे इसलिए अलग होगा क्योंकि यह सीरीज है. हमारे पास दो घंटे का टाइम लिमिट नहीं था. हमारे पास कहानी को पूरे डिटेल में कहने का मौका था. हमने प्रयास की है कि इसे किसी भी प्रकार से अनरियलिस्टिक नहीं बनाएंगे. जो है वह रियल बताएंगे. मेरा मानना है कि देशभक्ति चीखने और चिल्लाने से नहीं आती है, बिना इसके भी लोगों के दिलों में देशभक्ति भर सकते हैं.
मुंबई, पंजाब, पटियाला, जम्मू कश्मीर, दिल्ली के अतिरिक्त हमने इस सीरीज की शूटिंग सर्बिया में की है. सर्बिया में तो बहुत सारी फिल्मों की शूटिंग होती है. डिफेंस सीन की शूटिंग के लिए यहां पर परमिशन सरलता से मिल जाता है .
विक्रांत बहुत अच्छे कलाकार और प्यारे आदमी हैं. बहुत अच्छा लग रहा है कि वो हर फिल्म और सीरीज के साथ इतनी ऊंचाइयों को छू रहे हैं. पहले इस सीरीज को डायरेक्ट करने की मेरी प्लानिंग नहीं थी. उस समय मैं ब्रह्मास्त्र में पहले असिस्टेंट के तौर काम कर रहा था और दो महीने के लिए बल्गेरिया में था. वहां से वापस आया तो सोच लिया कि अब असिस्टेंट के तौर पर काम नहीं करना है.
मेरी इंडिपेंडेंट डायरेक्शन में काम करने की प्रयास थी. उस समय मैं एक शॉर्ट फिल्म बनाने जा रहा था. तभी मेरे एक मित्र नीरज कोठारी का टेलीफोन आया. वो किसी और डायरेक्टर के साथ सीरीज बना रहे थे. लेकिन उन्हें चीजें नहीं जम रही थी. मुझे स्क्रिप्ट पढ़ने के लिए भेजा. उस समय ऐसी कोई बात नहीं थी कि मुझे डायरेक्ट करना है. स्क्रिप्ट मुझे बहुत अच्छी लगी. मैंने नीरज को कहा कि पढ़ तो लिया है करना क्या है ? तब नीरज ने कहा कि मैं चाहता हूं कि तुम इसे डायरेक्ट करो.
मेरी आरंभ ही एकता कपूर के बालाजी टेलीफिल्म्स से हुई है. इसे आप सर्कल ऑफ लाइफ कह सकते हैं. जब मैंने इंडस्ट्री में काम करने के बारे में सोचा और जब स्ट्रगल कर रहा था. तभी मेरी आरंभ बालाजी टेलीफिल्म्स के सीरियल कुसुम से ट्रेनिंग असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर हुई. मेरे डेब्यू डायरेक्शन की आरंभ भी बालाजी के सीरीज ‘अपहरण 2’ और ‘फितरत’ से हुई. फिर कभी वापस काम करने का मौका मिलेगा तो फिर काम करेंगे.
आप कह सकते है कि प्राइमरी बालाजी और हाई विद्यालय धर्मा प्रोडक्शन में हुआ. जो कुछ भी सीखा है यहीं से सीखा है. धर्मा एक अलग ही तरह का विद्यालय है, जहां बड़े आराम से रिलेक्स वातावरण में काम होता है. वो बहुत ही दिलचस्प अनुभव रहा है. मेरी फिल्म की जर्नी गोल्डी बहल की फिल्म ‘द्रोणा’ से प्रारम्भ हुई थी. इसके बाद असिस्टेंट डायरेक्टर के तौर पर वेक अप सिड,ये जवानी है दीवानी और ब्रह्मास्त्र जैसी फिल्में की. अयान से बहुत कुछ सीखने का मौका मिला है .
तब एकदम नहीं सोचा था. जब तक आप देख नहीं लेते तब तक समझ में नहीं आता है. रणबीर ने जिस तरह से एनिमल में एक्शन भूमिका पहली बार निभाया है. वह बहुत ही अलग और दिलचस्प हैं. वे ऐसे अभिनेता हैं कि हर तरह के रोल कर सकते हैं. वे बहुत ही मंझे हुए अभिनेता हैं .
मैं नेपोटिज्म के टॉपिक में नहीं घुसता हूं और ना ही इसमें विश्वास करता हूं. नेपोटिज्म आपको केवल एंट्री दिला सकता है. उसके बाद आपके टैलेंट के ऊपर है. यह हर इंडस्ट्री में होता है. इंडस्ट्रियलिस्ट का बेटा अपने डैड का बिजनेस जॉइन करता है. पॉलिटिशियन का बेटा पॉलिटिक्स जॉइन करेगा. मैं समझता हूं इससे एक प्लेटफार्म जरूर मिल जाता है. लेकिन आगे आपकी मेहनत पर निर्भर करता है कि आप कितने टैलेंटेड हैं. आउटसाइडर्स और नेपोटिज्म पर लोग फालतू में इस पर डिबेट करते हैं .
यह ठीक है एकता मैडम एकदम टास्क मास्टर हैं . उनका वो काम करने का तरीका है. यह आप पर डिपेंड करता है कि उनके टास्क को आप कैसे क्रैक करते हैं. यदि आप ऐसा कर पाते हैं तो उनके साथ काम करते व्यक्त कभी लगेगा ही नहीं कि आप टास्क मास्टर के साथ काम कर रहे हैं. वो एकदम नारियल की तरह बाहर से बिल्कुल हार्ड और अंदर से एकदम सॉफ्ट हैं .
करण जौहर के साथ कैसे अनुभव रहे हैं ?
वेक अप सिड से लेकर ब्रह्मास्त्र तक तो जीवन के बहुत सारे वर्ष तो धर्मा में ही बीते हैं. वहां बहुत कुछ सीखने को मिला. करण बहुत ही अलग और स्वीट पर्सन हैं . वो किसी को कुछ नहीं बोलते हैं. बहुत ही शार्प और टैलेंटेड हैं. इमोशन्सन और म्यूजिक में उनकी बहुत अच्छी पकड़ है. मुझे नहीं लगता कि ऐसी पकड़ किसी और में होगी .
आप जैसे लोग जब बाहर से आते हैं. इंडस्ट्री में काम प्रारम्भ करते हैं तो किस तरह का सपोर्ट मिलता है ?
जब मैंने 2006 में आरंभ की थी तब बहुत ही टफ था. उस समय टीवी था या फिर फिल्म था. ओटीटी वगैरे तो उस समय नहीं था. उस समय बहुत कठिन था कि एंट्री कैसे मिले. जब मैं प्रयास कर रहा था तब बहुत प्रॉब्लम हुई थी. मैं सोच रहा था कि कई मौका मिल जाए. बालाजी के चक्कर काटता रहता था . राम गोपाल वर्मा के फैक्ट्री के बाहर दिन भर खड़े रहते थे कि कहीं किसी से मिल लें और अपने साथ असिस्टेंट रख ले . उस समय बहुत ही कठिन था. अब चीजें काफी अलग हो गईं हैं. यदि आप यूट्यूब भी चला रहे हैं तो उस पर भी अपना नाम बना सकते हैं. आज टैलेंट दिखाने के बहुत सारे प्लेटफार्म हैं . अब तो आप घर बैठे अपने टेलीफोन पर भी फिल्म बना सकते हो और उसे रिलीज कर दो, यदि चल गई तो आप का नाम हो सकता है.
अपने करियर का सबसे बड़ा स्ट्रगल क्या मनाते हैं आप ?
वो आरंभ का ही समय था जब मैं किसी को नहीं जानता था. मेरे पड़ोस में कैमरा मैन सुदीप चटर्जी केअसिस्टेंट हुआ करते थे. उनके साथ सेट्स पर गर्मियों की छुट्टियों में जाता था. वहीं से कहानियां बताने और डायरेक्शन का चस्का भी लगा. उसके बाद मैं गली – गली घूमने लगा कि कहां से मौका मिले ? उन दिनों अखबार में फिल्मों में काम देने के विज्ञापन खूब छपते थे. बाद में पता चलता था कि वो सब फ्रॉड हैं. उस समय तो मोबाइल टेलीफोन नहीं थे. घर के लैंडलाइन पर बालाजी से दो बार टेलीफोन आया और दोनों बार मैं बाहर था. लेकिन जब तीसरी बार टेलीफोन आया तो संयोग से घर पर ही था. जब एक बार आप सिस्टम में शामिल हो जाते हैं तो रास्ते अपने आप ही बनते चले जाते हैं.