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सेंसर बोर्ड को नहीं समझ आया महिला सशक्तिकरण

इंजीनियर बनने के सपने को पीछे छोड़ भोजपुरी सिनेमा पर लगे अश्लीलता के दाग को छुटाने की प्रयास कर रहा एक युवा निर्देशक इन दिनों सेंसर बोर्ड के मुंबई कार्यालय के चक्कर काट रहा है. सामाजिक समरसता और स्त्री सशक्तिकरण पर बनी उसकी फिल्म ‘जया’ को सेंसर बोर्ड ने केवल इसलिए सेंसर सर्टिफिकेट देने से मना कर दिया है कि फिल्म की नायिका फिल्म के क्लामेक्स में अकेले रहने का निर्णय कर लेती है. सेंसर बोर्ड की परीक्षण समिति (एग्जामिनिंग कमेटी) के सदस्य अब भी यही मानते हैं कि बिहार या पूर्वी यूपी में बिना पति के सहारे किसी स्त्री का समाज में रहना ठीक नहीं है!


केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड यानी सेंसर बोर्ड के मुंबई क्षेत्रीय कार्यालय के अधिकारी इन दिनों अपने फैसलों को लेकर सुर्खियों में हैं. हिंदी सिनेमा के कद्दावर फिल्म निर्माता-निर्देशक के सी बोकाडिया अपनी फिल्म ‘तीसरी बेगम’ से जय श्री राम हटाने के सेंसर बोर्ड के आदेश के विरुद्ध उच्च न्यायालय का रुख कर चुके हैं, उनकी फिल्म तो फिर भी पुनरीक्षण समिति ने देख ली थी, भोजपुरी फिल्म ‘जया’ का अभी नंबर ही नहीं आया है. सेंसर बोर्ड के कार्यालय से यही उत्तर मिल रहा है कि समिति के सदस्य ही इकट्ठे नहीं हो पा रहे हैं इस काम के लिए.


 

भोजपुरी सिनेमा के कद्दावर निर्माता रत्नाकर प्रसाद की फिल्म ‘जया’ के निर्देशक वही धीरू यादव हैं जिन्होंने भोजपुरी सिनेमा में साफ सुधरी फिल्में बनाने का इन दिनों बीड़ा उठा रखा है. ‘अमर उजाला’ से एक मुलाकात में वह बताते हैं, ‘मेरी तो एनआईटी में बढ़िया रैंकिंग आई थी. घरवाले चाहते थे कि मैं इंजीनियर बनूं. कोटा में चार वर्ष रहकर मैंने मेहनत की थी और तब प्रवेश परीक्षा में सफल हुआ था लेकिन मेरा मन कुछ ऐसा करने को हो रहा था जिससे सामाजिक परिवर्तन हो सके. मैंने मुंबई आकर भिन्न भिन्न निर्देशकों का सहायक बनकर काम सीखा और फिर अपनी फिल्में बनानी प्रारम्भ कर दीं.


बिहार में बाढ़ की परेशानी पर बनी उनकी फिल्म ‘कटान’ साल के आरंभ में आए ट्रेलर के बाद से ही चर्चा में रही. फिल्म ‘जया’ को भी इसी वर्ष के प्रारम्भ में रिलीज होना था लेकिन जनवरी में सेंसर बोर्ड में जमा हुई फिल्म ‘जया’ को परीक्षण समिति ने ये कहते हुए सेंसर सर्टिफिकेट देने से इंकार कर दिया कि इसमें स्त्री भूमिका को सामाजिक रूप से काफी दबा हुआ दिखाया गया है. धीरू कहते हैं, ‘मुझे तो लगता है इन लोगों ने फिल्म देखी ही नहीं या फिर इन्हें हिंदुस्तान में हो रहे बदलावों की समझ नहीं है. मेरी फिल्म एक सत्य घटना से प्रेरित है.


कोरोना के समय मध्य प्रदेश में श्मशान घाट पर काम करने वाली एक स्त्री की समाचार से प्रेरित फिल्म ‘जया’ की कहानी कुछ यूं है कि घर परिवार से दुत्कारी गई एक बेटी श्मशान घाट पर लोगों की चिताएं जलाने में सहायता करने का काम करती है. वह अपने बेटे का भी यहीं आखिरी संस्कार स्वयं ही कर चुकी है. फिल्म में एक प्रेम कहानी भी है और अंत में फिल्म का ब्राह्मण नायक उसे लेने भी आता है लेकिन यह बेटी अपने आत्मसम्मान पर आंच नहीं आने देना चाहती. एक डोम की बेटी को पहले एक अमीर परिवार दुत्कारता है, लेकिन फिल्म के क्लाइमेक्स में यही डोम की बेटी सामाजिक स्वीकार्यता मिलने की पहल को ठुकरा कर अपना जीवन अपने बूते व्यतीत करने का निर्णय करती है.

 


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