Dukaan Movie Review: सिद्धार्थ-गरिमा की दुकान का नहीं उठा शटर, जानिए कैसी है मोनिका पांवर की फिल्म
Dukaan Movie Review: गोलियों की रासलीला, बाजीराव मस्तानी जैसी सुपरहिट फ़िल्मों से लेखक सिद्धार्थ और गरिमा का नाम जुड़ा है। फ़िल्म दुकान से वह निर्देशन की आरंभ कर रहे हैं। सरोगेसी पर हिन्दी सिनेमा में अब तक कई फ़िल्में बन चुकी है। कई नामी गिरामी सितारों की निजी जीवन की भी यह सच्चाई है | यह फ़िल्म कमर्शियल सरोगेसी की उसी मामले को सामने लेकर आती हैं, हालांकि कमर्शियल सरोगेसी को लेकर अब नये नियम बन चुके हैं लेकिन यह फ़िल्म सरोगेसी की उस व्यवसायिक दुनिया की खोज करती है,जिसके लिये एक वक़्त गुजरात का आनंद राष्ट्र विदेश तक प्रसिद्ध था | फ़िल्म कॉन्सेप्ट लेवल पर जितनी सशक्त दिखती है ,पर्दे पर उस तरह से नहीं आ पायी है।सरोगेट्स के दर्द को गहराई में उतरकर यह फ़िल्म दर्शाने से चूक गयी है | मोनिका पांवर के एक्टिंग की अवश्य प्रशंसा बनती है। उन्होंने बहुत बेबाक़ी के साथ अपनी किरदार को निभाया है ।
कमर्शियल सरोगेसी की है कहानी
फिल्म की कहानी चमेली की है, जो बचपन में ख़ुद अपना नाम चमेली से जैस्मीन (मोनिका) रख लेती है। जिस तरह से वह अपना नाम रखती है ।वह अपनी जीवन को भी ख़ुद ही लिखती है। समाज के बने बनाये नियम से अलग वह चलती है। युवा होने पर वह अपने लिए पति सुमेर (सिकंदर खेर)को चुनती है, जिसकी उससे कुछ वर्ष छोटी एक सौतेली बेटी है। सुमेर से उसे एक बेटा होता है लेकिन उसे बच्चे से लगाव नहीं है। उसकी वजह बचपन की एक दुखद घटना है। सब कुछ ठीक से चल रहा होता है कि सुमेर की मृत्यु हो जाती है। अपनी ज़रूरतों के अतिरिक्त सौतेली बेटी की विवाह की ज़िम्मेदारी जैस्मिन पर आ जाती है। पैसों की तलाश उसे डाक्टर नव्या चंदेल (गीतिका त्यागी) तक पहुंचाती है। जहां उसे सरोगेसी के बारे में मालूम पड़ता है और सरोगेट्स बन जाती हैं।बेबी मशीन के नाम से उसकी दुकान चल पड़ती है। बेबी मशीन तब लड़खड़ाती है जब वह दीया (मोनाली ठाकुर) और अरमान (सोहम मजूमदार) के बच्चे को अपने पास रखना चाहती है। वह पेट में पल रहे बच्चे को लेकर भाग जाती है | क्या होगा जब दोनों बच्चे का परिवार होने का दावा करते है? बच्चा किसके पास जाएगा।क्या सरोगेट्स को भी परिवार का हिस्सा माना जाना चाहिए। इन्ही मुद्दों को छूती हुई यही आगे की कहानी है।
फ़िल्म की खूबियां और खामियां
सिद्धार्थ और गरिमा इस फ़िल्म की कहानी पर एक दशक से काम कर रहे हैं | फ़िल्म आरंभ में आशा भी जगाती है। इंटरवल तक कहानी एंगेज करके भी रखती है लेकिन सेकेंड हाफ में कहानी बिखर गयी है। बच्चों से प्यार ना करने वाली जैस्मिन आखिर कैसे इस बच्चे से प्यार करने लग जाती है और फिर फिल्म के क्लाइमेक्स में वह बच्चे को उसके माता पिता को देने के लिए तैयार हो जाती है। सबक़ुछ बस कहानी में होता चला जाता है। वो भी कुछ सीन में उसके पीछे कोई ठोस वजह नहीं दिखती है। फ़िल्म के स्क्रीनप्ले में इमोशन का यह ग्राफ मिसिंग है, जिससे आप इमोशनली जुड़ नहीं पाते हैं और फ़िल्म यही कमज़ोर हो जाती है। यह फ़िल्म कमर्शियल सरोगेसी को उन पहलुओं को कारगर ढंग से नहीं छुआ गया है। जिसकी यह फ़िल्म दावा करती है। स्क्रीनप्ले में यही बात उभर कर सामने आती है कि सरोगेट्स आवश्यकता से ज़्यादा अपनी ख्वाहिशों को इससे पूरा करना चाहती हैं। फ़िल्म के आख़िर में कुछ संवादों के ज़रिये ही उनकी कठिनाई को स्थापित करने की असफल प्रयास की गयी है। फिल्म की कहानी में समय बदलता रहता है लेकिन किरदारों के लुक और बोलचाल में कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता है। यह बात अखरती है | फ़िल्म का लुक और ट्रीटमेंट कहानी के साथ इन्साफ करता है,लेकिन इसमें भंसाली की छाप नज़र आती है ।इससे मना नहीं किया जा सकता है ।श्रेयस पुराणिक का संगीत कहानी और किरदारों के अनुरूप है।
मोनिका का एक्टिंग है कमाल
अभिनय की बात करें तो यह फ़िल्म मोनिका की है। उन्होंने वेब सीरीज जामताड़ा में साबित कर दिया था कि वह योग्य अदाकारा हैं। इस फ़िल्म में वह बहुत ही बेबाक़ तरीक़े से अपने भूमिका को निभाया है। जिसके लिये उनकी प्रशंसा करनी होगी। फ़िल्म को अकेले उन्होंने अपने कंधों पर उठाया है लेकिन आख़िर के दृश्य में वह चूकी भी हैं। जब बेटे बड़े हो जाते हैं तो भी मोनिका ने अपने भूमिका को उसी एनर्जी और बॉडी लैंग्वेज के साथ जीती दिखी है। यह बात अखरती है। मोनाली ठाकुर अपने बच्चे के लिए एक मां की तड़प को ठीक ढंग से अपने एक्टिंग में उतार नहीं पायी हैं।गीतिका त्यागी और सिकंदर खेर अपनी भूमिकाओं में याद रह जाते हैं। बाक़ी के किरदारों को करने के लिए फ़िल्म में ज़्यादा कुछ ख़ास नहीं था। सनी देओल मेहमान किरदार में दिखें हैं।