पाकिस्तानी कोर्ट ने दी मुस्लिम महिला को बड़ी राहत
Pakistan Supreme Court ने मुसलमान स्त्री को राहत देते हुए निकाहनामे की शर्तों को लेकर बड़ी टिप्पणी की है। न्यायालय ने बोला है कि परंपरा के हिसाब से निकाहनामे की शर्तें शौहर और उनके परिवारवाले तय करते हैं और बेगम उसे कबूल भी कर लेती है। लेकिन विवाह के बाद के सालों में यह उसके लिए बेमानी हो जाता है। लड़की पक्ष के साथ यह सरासर नाइंसाफी है।
हुमा सईद के पक्ष में दिया फैसला
सुप्रीम न्यायालय की दो सदस्यीय बेंच जस्टिस अमीनुद्दीन खान और अतहर मिनाल्लाह ने अपने आदेश में बोला कि निकाहनामे में बहू और उसके परिवारावालों की सहमति भी महत्वपूर्ण है। 2022 में लाहौर उच्च न्यायालय ने हुमा सईद नाम की खातून के पक्ष में निर्णय किया था। उसका विवाह मई 2014 में मोहम्मद यूसुफ के साथ हुआ था और अक्टूबर 2014 में तलाक हो गया। इसके बाद मुद्दा उच्च न्यायालय पहुंचा और उसने हुमा को निकाहनामे के कॉलम 17 में दर्ज जमीन का टुकड़ा देने का आदेश दिया था।
लकड़ी पक्ष की सहमति निकाहनामे में जरूरी
Pakistan उच्च न्यायालय का निर्णय आने के बाद यूसुफ ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया और निकाहनामे के कॉलम 17 का हवाला दिया। इसमें बोला गया था कि प्लॉट घर बनाने के लिए था और मेरी बेगम तब तक वहां रह सकती थी, जबतक हमारा विवाह बना रहता। जस्टिस मिनाल्लाह ने अपने 10 पेज के निर्णय में बोला कि कॉलम 17 में जो बात लिखी गई है उससे आपका बयान मेल नहीं खाता। ऐसे में निकाहनामे की शर्तों को किस तरह से ट्रीट किया जाए, यह प्रश्न है। जस्टिस मिनाल्लाह ने बोला कि निकाहनामा तैयार करते समय लड़की पक्ष की सहमति लेना इसीलिए महत्वपूर्ण है।
निकाहनामा दो पक्षों में मैरिज कॉन्ट्रैक्ट
जस्टिस मिनाल्लाह ने बोला कि सामाजिक बंधनों और पुरुष प्रधान समाज की मानसिकता के कारण स्त्रियों को खामियाजा उठाना पड़ता है। बेंच ने बोला कि निकाहनामा दो पक्षों के बीच मैरिज कॉन्ट्रैक्ट है। इसकी शर्तों को दोनों पक्षों की सहमति से तैयार किया जाना चाहिए। निर्णय में बोला गया कि निकाहनामें में यदि कोई अस्पष्टता निकल कर आती है तो उसका लाभ पत्नी को मिलना चाहिए।