बिहार के अधिसंख्य राष्ट्रवादी नेता हुए जातिवादी
किसान नेता स्वामी सहजानंद सरस्वती अपनी आत्मकथा में लिखते हैं कि पहले आम चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने लोकसभा सीटों पर जाति की बहुलता के मुताबिक अपने उम्मीदवारों को टिकट दिया। इसके पहले 1926 के लेजिस्लेटिव काउंसिल के चुनाव के समय उनकी टिप्पणी गौर करने लायक है: बिहार के अधिसंख्य राष्ट्रवादी नेता जातिवादी हो गये।
छोटी जातियों के राजनीति में अगुवाई का सवाल
चुनाव और जाति के अंतर संबंधों को देखें, तो सियासी दलों के उम्मीदवार चयन में इसका रंग और गाढ़ा होता गया है। जातियों की सियासी चेतना के मुताबिक सत्ता या राजनीति में हिस्सेदारी का प्रश्न पेचीदा रहा है। जाति से जमात का दर्शन कब निखालिस जातिवाद में बदल जाये, बोलना कठिन नहीं। जातियों की खेमेबंदी और सामाजिक समीकरण आज भी सियासी दलों के आधार बने हुए हैं। समाजवादी चिंतक डॉ राम मनोहर लोहिया जब पिछड़ा पावे सौ में साठ की बात करते हैं, तो इसका अर्थ जाति से जमात की ओर बढ़ना है। पर उसी समय वह आगाह भी करते हैं कि पिछड़ों की अगड़ी जातियां दूसरी अन्य पिछड़ी जातियों की हकमारी कर लेंगी। डॉ लोहिया की यह संभावना निम्न या छोटी जातियों के राजनीति में अगुवाई देने की ओर थी। पर राजनीति इतनी उदार नहीं हो सकी। लोकसभा चुनाव के ठीक पहले पटना में एक के बाद एक विभिन्न जातियों की सभाएं-रैलियां हुईं। पर उम्मीदवारों की लिस्ट देखने पर पता चलता है कि उनकी हिस्सेदारी न्यूनतम स्तर पर बनी हुई है।
जातियों की खेमेबंदी का गवाह भी रहा बिहार
गौर से देखें तो पता चलता है कि सियासी दल अपने सामाजिक आधार के हिसाब से ही उम्मीदवारों के चयन को अहमियत देते हैं। कुछ अपवाद ऐसे रहे हैं जब संख्या की बहुलता नहीं होने के बावजूद बिहार की जमीन ने उन्हें राजनीति के ऊंचे पायदान पर बिठाया है। कर्पूरी ठाकुर और रामसुंदर दास ऐसे अपवाद रहे हैं। इसके उलट सियासी उठा-पटक के जरिये जातियों की खेमेबंदी का बिहार गवाह भी रहा है। 1961 में श्रीकृष्ण सिंह के मृत्यु के बाद जातियों की गोलबंदी का एक रूप इतिहास में दर्ज है। भूमिहार विरोधी जातियां विनोदानंद झा के नेतृत्व में एकजुट हुईं। इसका रिज़ल्ट यह हुआ कि उस जमाने के बड़े भूमिहार नेता महेश प्रसाद को हार का सामना करना पड़ा। इस परिघटना से इतिहास ने करवट ली और बिहार में पहली बार एक ब्राह्मण की सीएम के पद पर ताजपोशी हुई।
विनोदानंद झा ने पहली बार दिया था प्रतिनिधित्व
इससे थोड़ा आगे बढ़े और विनोदानंद झा की कैबिनेट पर नजर डालें , तो पता चलता है कि पहली बार बिहार की राजनीति में पिछड़ी और दलित जातियों के साथ अन्य जातियों को अगुवाई देने का बड़ा कोशिश किया गया था। मालूम हो कि सीएम की कुर्सी से भूमिहार नेतृत्व को रोकने के लिए राजपूत जाति के नेताओं ने विनोदानंद झा के साथ गठजोड़ बनाया था। बहरहाल, झा की कैबिनेट और पार्लियामेंट्री सेक्रेटरी के स्वरूप को सामाजिक बुनावट की छतरी देने की प्रयास की गयी थी। यह प्रयास प्रकारांतर से पिछड़ी जातियों की गोलबंदी और उससे पैदा हुई हिस्सेदारी की बल मार रही आकांक्षाओं को एकोमोडेट (समायोजित) करने की थी। झा की कैबिनेट में पिछड़ी जातियों के मंत्रियों की संख्या बढ़कर चार हो गयी थी। ये मंत्री थे: वीरचंद पटेल जिन्हें कैबिनेट मंत्री का दर्जा मिला था। दारोगा प्रसाद राय, देवनारायण यादव और सहदेव महतो उप मंत्री बनाये गये थे। जातियों की हिस्सेदारी का प्रश्न सामाजिक चेतना तथा उसकी जागृति से भी गहरे जुड़ा है। समय-समय पर इसकी बानगी भी देखने को मिलती है। पंचायतों में स्त्रियों के लिए पचास प्रतिशत आरक्षण की नीतीश गवर्नमेंट की प्रबंध इसी निरंतरता में मानी जायेगी।
जातिगत अगुवाई पर एक नजर
हाल में आयी बिहार की जातिगत आधारित गणना की रिपोर्ट के मुताबिक अगड़ी, पिछड़ी, अति पिछड़ी, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और मुसलमानों की कुल जातियों की संख्या 215 है। पर लोकसभा के मौजूदा चुनाव में राज्य की 40 सीटों पर सिर्फ़ 15 जातियों के उम्मीदवार ही उतारे गये हैं। इससे पता चलता है कि जातियों के लोकतांत्रिक प्रक्रिया में समायोजन की रफ्तार कितनी धीमी या उपेक्षित है।