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Election : पर्यावरण सियासत का सुलगता सवाल क्यों नहीं बन पाता

Election : हिल स्टेशन रही रांची अभी सिर्फ़ चुनाव तपिश ही नहीं मौसम की गर्मी से भी तप रही है वोट मांगने जा रहे नेता से लेकर कार्यकर्ता तक मौसम की मार या यूं कहे कि बिगड़ते पर्यावरण का कहर झेल रहे हैं सबकी जुबां पर यह कठिनाई है, फिर भी इससे निजात दिलाने की मांग न तो चुनावी चर्चा का मामला है और न ही राजनीति का एजेंडा बन पा रहा है बात सिर्फ़ झारखंड और यहां की राजधानी रांची की ही नहीं बल्कि पड़ोसी राज्य बिहार की भी है. बिहार के आठ शहर हर वर्ष गर्मी में हीट आइलैंड बन जाते हैं, लेकिन पॉलिटिक्स के प्लेटफॉर्म से जनता का यह मामला लोकसभा चुनाव की सरगर्मी के बाद भी उठता नहीं दिख रहा है यहां तक कि दुनिया तो तबाह करने वाली बिगड़ते पर्यावरण की संभावना लोगों को इतनी डराती नहीं दिख रही है कि वे नेताओं को इसके निदान के लिए विवश कर सकें

क्या हालत इतनी खराब नहीं कि पर्यावरण चुनावी मामला बन जाए

जिस रांची के मनमोहक मौसम को देखते हुए अंग्रेजों ने इसे गर्मी की राजधानी बनाया था, वहां अब लू चलने लगी है धरती भी तपने लगी है और वातावरण आग उगलने लगा है ऐसी स्थिति सिर्फ़ रांची और झारखंड की ही नहीं पड़ोसी बिहार की भी है 40 नदियां सूख चुकी हैं यहां एक डिग्री भी औसत तापमान बढ़ा तो गेहूं की खेती तक कठिन हो जाएगी यानी जीवन और जीविका पर संकट आ जाएगा फिर भी इस खतरे पर नेता मुंह चुरा रहे हैं और जनता सीधे प्रश्न नहीं कर रही है

गहरी समझ जरूरी, इसलिए संकट होने पर भी राजनीति को लुभाता नहीं

झारखंड के पर्यावरणविद प्रोफेसर नीतीश प्रियदर्शी कहते हैं कि राजनीति के ऐसे मामले वोट खींचते हैं जो जनता को एक लाइन में सरलता से समझ में आ जाय पर्यावरण का संकट पूरी मानव जाति के लिए विध्वंसक है परंतु, यह गहरी समझ की मांग करता है नेता इस पर इतनी मेहनत नहीं करना चाहते हैं अब देखिए ना, रांची का शृंगार यहां के पेड़, जंगल और जलस्रोत हैं लेकिन बीते 20 से 25 वर्ष में शहरीकरण के लिए ग्रीन कवर एरिया हटा दिया गया है अमरूद बगान, लीची बगान की स्थान अब कंक्रीट बागानों ने ले ली है हजारीबाग के माइनिंग एरिया में खनन से कई गंभीर बीमारियां हो रही हैं, जिसका कोई उपचार नहीं है, फिर भी लोगों को इसकी कोई सुध नहीं है लोग रोजगार, महंगाई से राहत जैसे अलग सुन्दर मुद्दों की ओर चले जाते हैं, जो एक बड़ा कारण है कि इतने बड़े पैमाने पर क्षरण के बाद भी पर्यावरण बड़ा मामला नहीं बना है

राजनीति के ऐसे मामले वोट खींचते हैं जो जनता को एक लाइन में सरलता से समझ में आ जाये

क्या चुनाव में ज्यादातर जुमले, भावना भड़काने वाले मामले या भावुक अपील ही वोट में बदलते हैं? यह प्रश्न पूछे जाने पर बिहार के पर्यावरणविद इश्तियाक अहमद कहते हैं कि जलवायु बदलाव के कारण आम जनता अब पीड़ित होने लगी है किसानों और मछुआरों की आजीविका खतरे में है इसके बावजूद पर्यावरण के मुद्दों को कहीं न कहीं दबा दिया जाता है न तो सत्ता पक्ष की नजर में ये बहुत बड़ा विषय है और न ही विपक्ष की नजर में इश्तियाक अहमद कहते हैं कि पर्यावरण के क्षरण के प्रति कोई भी बड़े कदम नहीं उठाए जा रहे है इसके बाद भी जनता की जागरूकता में कमी के कारण यह सिर्फ़ बौद्धिक बहस तक रह जाता है राजनीति का सुलगता प्रश्न नहीं बन पाता है

”जलवायु बदलाव के कारण आम जनता अब पीड़ित होने लगी है किसानों और मछुआरों की आजीविका खतरे में”

क्या तात्कालिक फायदा-लाभ नहीं दिखता, इसलिए जनता गोलबंद नहीं होती

झारखंड के सामाजिक कार्यकर्ता घनश्याम कहते हैं कि रोजगार, पढ़ाई जैसे मामले लोगों को तुरन्त लाभ पहुंचाते दिखते हैं वहीं जलवायु बदलाव या बिगड़ता पर्यावरण लोगों को दूरगामी लाभ का लगता है फिर लोग यह भी सोचते हैं कि कोई न कोई तो इस मामले को उठाएगा ही, हम क्यों अधिक टेंशन लें नेताओं को भी यह तुरंत फायदा दिलाने वाला नहीं है इस कारण जनता के अस्तित्व से जुड़े बड़े संकट को ही राजनीति से गौण कर दिया गया हैै

‘हालत सोचकर रूह कांप जाती है’, सामाजिक कार्यकर्ता अनिल राय

बिहार के सामाजिक कार्यकर्ता अनिल राय ने बोला कि यह बहुत भयानक मामला है, इसी तरह रहा तो आने वाले सालों में क्या हालत होगी यह सोचकर रूह कांप जाती है उन्होंने बोला कि पर्यावरण किसी भी खास धर्म, जाति और वर्ग के लिए नहीं है, बल्कि सबके लिए है इसलिए राजनीति में यह मामला वोट का कारण नहीं बनता है उन्होंने कहा कि इसी तरह बच्चों का मामला भी कभी प्रमुखता से नहीं उठता है, क्योंकि वे वोटर नहीं होते हैं

पर्यावरण की बिसात पर क्यों नहीं चलती चुनावी शह-मात की बाजी

प्रभात समाचार ने सियासी दलों के मन टटोलकर भी जानने की प्रयास की आखिर हर छोटे-बड़े मुद्दों को भुनाने वाले सियासी दल चुनावी बिसात पर पर्यावरण के मोहरों से शह-मात की बाजी क्य़ों नहीं खेलते हैं?
बिहार के नेताओं की सफाई
1. इसके उत्तर में बिहार के MLC और भाजपा नेता प्रमोद चंद्रवंशी सिर्फ़ अपनी पार्टी लाइन बताते हैं वे कहते हैं कि पीएम मोदी इस मामले को लेकर काम कर रहे है पर्यावरण के संरक्षण के लिए बहुत सारे काम हो रहे है
2. वहीं, बिहार के कांग्रेस पार्टी नेता राजेश राठौड़ कहते हैं कि उनकी पार्टी ने इसे भले ही चुनावी मामला नहीं बनाया है, लेकिन इस पर वर्षों से काम कर रही है नीतीश कुमार के साथ गठबंधन गवर्नमेंट में जल-जीवन-हरियाली योजना इसी कारण प्रारम्भ की गई थी

झारखंड के नेताओं की सफाई
1. झाारखंड के भाजपा विधायक सीपी सिंह कहते हैं कि झारखंड हमेशा से पर्यावरण के बहुत करीब रहा है लेकिन, धीरे-धीरे शहरीकरण हुआ और पेड़ों के जंगल, कंक्रीट के जंगल में परिवर्तित हो गए इसके लिए किसी एक को गुनेहगार नहीं ठहराया जा सकता है सरकार-व्यवस्था और जनता तीनों को ठीक करने की आवश्यकता है
2. वहीं, झारखंड मुक्ति मोर्चा के प्रवक्ता तनुज खत्री ने बोला कि प्रारम्भ से JMM जल, जंगल और जमीन के मामले पर ही राजनीति करता रहा है जल और जंगल है तभी पर्यावरण है ऐसे में हम कहते हैं कि पर्यावरण हमेशा से हमारा मामला है चुनाव के समय जल-जंगल-जमीन की बात सिर्फ़ हमारी पार्टी करती है और कोई दूसरी पार्टी अब कर रही है तो हमें देखकर

 

क्या चुनावी मामला बनते ही पर्यावरण सुलगता प्रश्न बन जाएगा

लाख टके का प्रश्न यह है कि पर्यावरण यदि चुनावी मामला बन जाए तो क्या होगा? सबसे बड़ी बात तो यह है कि पर्यावरण के सियासी एजेंडा बनते ही आम लोगों के बीच यह चर्चा का विषय बन जाएगा. सियासी दल इस मामले पर भी जनता को लुभाने के लिए विवश होंगे. चुनाव में आरोप-प्रत्यारोप से बचने के लिए जमीनी स्तर पर परिणाम देने की तैयारी करेंगे फिर यह गवर्नमेंट में शामिल ऑफिसरों का भी माइंडसेट बदलेगा और हर चीज संसार के अस्तित्व के लिए महत्वपूर्ण पर्यावरण की कसौटी पर कसी जाएगी यानी पर्यावरण जनता के बीच बौद्धिक बहस न होकर सुलगता प्रश्न बनेगा ऐसे में जनमत तय करेगा कि विकास के हर पहलू में अधिक ठीक क्या है?

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