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जानिए, छठी मां के व्रत की पौराणिक कथा

दिवाली के छह दिन बाद उत्तर हिंदुस्तान के एक और बड़े पर्व छठ को बड़े ही धूम-धाम और आस्था के साथ मनाया जाता है. कार्तिक शुक्ल पक्ष की षष्ठी को मनाया जाने वाला ये त्योहार मूल रूप से झारखंड, नेपाल, पूर्वी यूपी और बिहार में बड़े पैमाने पर मनाया जाता है जिसमें मां छठी के साथ सूर्य की उपासना की जाती है.

दो से चार दिनों तक चलने वाले इस पर्व में महिलाएं 36 घंटे का मुश्किल उपवास करती हैं. जिसकी शुरूआत नहाय-खाय से होती है. इस दिन घर को हर तरह से सही करके शाकाहारी भोजन बनता है और उसे खाया जाता है.

व्रत के दूसरे दिन यानी पंचमी तिथी को पूरे दिन उपवास रखा जाता है और शाम को खरना की रस्म होती है. पूजा के तीसरे दिन यानी षष्ठी को नदी या तालाब में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य देते हैं. शाम को एक बार फिर सूप में ठेकुआ, चावल के लड्डू, गन्ना और बाकी सब्जियां और फल रख कर सूर्य देव और छठी माई को अर्घ्य दिया जाता है. दो बार अर्घ्य देने के बाद पीपल के पेड़ की पूजा के बाद अपना व्रत तोड़ते हैं.

राम-सीता ने की थी छठी माई की पूजा

मान्यता है कि लंका पर जीत हासिल के बाद जब राम और सीता वापिस अयोध्य लौट रहे थे तब उन्होंने कार्तिक माह की षष्ठी को माता छठी की पूजा की थी. इसमें उन्होंने सूर्य देव की पूजा की थी. तब से ही यह व्रत लोगों के बीच इतना प्रचलित है.

कर्ण ने की थी सूर्य उपासना

एक और पौराणिक कथा के मुताबिक छठ की सबसे पहली पूजा सूर्य पुत्र कर्ण ने की थी. सूर्य देव के प्रति उनकी आस्था आज भी लोगों के बीच चर्चित है. वे हमेशा कमर तक के जल में खड़े होकर सूर्य को अर्घ्य दिया. सूर्य देव की कृपा के कारण ही उन्हें बहुत सम्मान मिला. तब से सभी सूर्य की उपासना करने लगे.

द्रौपदी ने परिवार की समृद्धि के लिए रखा व्रत

हिन्दू मान्यताओं में एक और कथा प्रचलित है जिसके मुताबिक महाभारत काल में द्रौपदी ने भी छठी माई का व्रत रखा था. मान्यता है कि उन्होंने अपने परिवार की सुख और शांती के लिए यह व्रत रखा. अपने परिवार के लोगों की लंबी उम्र के लिए भी वह नियमित तौर पर सूर्य देव की पूजा करती थीं.

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