मैं कुकु द्विवेदी, पढ़ें मेरी कहानी…
मैं कुकु द्विवेदी इंदौर से हूं. मेरा बचपन बहुत ही खुशगवार गुजरा, जो अच्छी और खूबसूरत यादों के पिटारे से भरा है. पापा पेश से चिकित्सक थे और दूसरों की सहायता करने वाला था. उनकी ये काबिलियत मेरे अंदर भी आ गई. पापा हमेशा सबकी सहायता करते. हमारे घर में आए दिन दावतें हुआ करतीं. मां काफी लोगों का खाना बनाती. लोग आते जाते रहते. मम्मी-पापा सबके लिए हर समय खड़े रहते. हम ब्राह्मण हैं, लेकिन मेरे घर में हर जाति हर धर्म के लोगों का आना जाना रहता. दिमाग में कभी ऊंच नीच छुआ-छूत वाली बात नही आई.
22 वर्ष की उम्र में जॉब प्रारम्भ की
मैंने इंदौर से अपनी पढ़ाई पूरी की. पहले ही कोशिश में मुझे बैंक की जॉब मिल गई. 22 वर्ष की उम्र में मैंने 1977 में बैंक ऑफ इण्डिया जॉइन कर लिया. इसी बीच, मैंने एलएलबी में भी एडमिशन ले लिया था.
बचपन से ही जरूरतमंदों की सहायता करने का शौक
मुझे बचपन से ही लोगों की सहायता करने का शौक था. विद्यालय से लेकर हर स्थान कभी भी मुझसे कोई सहायता मांगता तो मैं कभी उसे इंकार नहीं करती. लेकिन उस समय मुझे नहीं पता था कि जो काम मैं कर रही हूं उसे सोशल वर्क कहते हैं, क्योंकि पापा और मां भी ऐसे ही काम किया करते थे. जॉब में आने के बाद दूसरों की सहायता का सिलसिला जारी रहा.
मेरे विद्यालय के बच्चे पढ़ने में बहुत होशियार हैं.
जीने के लिए कितनी कम चीजों की आवश्यकता होती है
मैं और मेरे पति दोनों बैंक में ही नौकरी करते थे. पति के सपोर्ट से ही विवाह के बाद भी दूसरों की सहायता करने का सिलसिला जारी रहा. मुझे एक किस्सा आज भी यादा है, मेरे घर के पास एक लड़की रहती थी. उसके पापा ड्राइवर थे. वो लड़की पढ़ाई में बहुत होशियार थी. मेरी बेटी की हमउम्र रही होगी. मैंने उससे वादा किया कि तुमको जितना पढ़ना है पढ़ो, मैं तुम्हारी पढ़ाई का पूरा खर्च उठने के लिए तैयार हूं.
वो लोग इतने गरीब थे कि एक छोटे से कमरे में रहते. मैं एक दिन उनके घर घूमने गई तो एहसास हुआ कि जीने के लिए कितने कम स्थान और सामान की आवश्यकता होती है. एक छोटा सा कमरा, उसी में किचन, पास में बाथरूम, परिवार में 4 लोग उसी कमरे में रहते.
लड़की ने मां-बाप को तोहफे में घर दिया
उस लड़की ने बीएससी की पढ़ाई पूरी करने के बाद जॉब प्रारम्भ की. वो अपने मां पापा को एक घर गिफ्ट करना चाहती थी. उसने जॉब करके कुछ पैसे जुटाए और लोन की सहायता से अपने पेरेंट्स को एक वन रूम सेट घर गिफ्ट किया. मुझे ये सुनकर इतनी खुशी हुई कि लगा बच्ची के साथ साथ मेरी भी मेहनत रंग लाई.
महंगा उपचार गरीबों के बस की बात नहीं
नौकरी के दौरान ही मेरी बेटी की तबीयत खराब हो गई. बेटी का उपचार करते करते मुझे एहसास हुआ कि उपचार कराना कितना महंगा है. हम तो इस खर्च को उठा लेते हैं लेकिन उन लोगों का क्या जो दो समय की रोटी कठिन से जुटा पाते हैं. यदि उन्हें उपचार की आवश्यकता पड़ी तो वो क्या करेंगे. ये बात मेरे दिमाग पर इतनी हावी हो गई कि मैंने सोचा मेरे अकेले के करने से अधिक फर्क नहीं पड़ेगा क्यों न अपने ही सहकर्मियों से सहायता की मांग की जाए.
हर कर्मचारी की तनख्वाह में से 10 रुपए काटने लगे
मैंने बैंक के यूनियन लीडर से बोला कि हम सब बैंक में काम करते हैं. अच्छी सैलरी भी है. हमें गरीब लोगों के उपचार में सहायता करने के लिए कुछ सहयोग करना चाहिए. उनको मेरी बात समझ आई. यही कोई करीबन 1980 के आसपास की बात होगी. उन्होंने हर कर्मचारी की तनख्वाह में से 10 रुपए काटने के लिए कहा. इंदौर ऑफिस में 400 कर्मचारी काम कर रहे थे. हमने बैंक ऑफ इण्डिया नाम से एक समिति और एक एकाउंट बनाया. इसमें हर महीने चार हजार रुपए जमा होने लगे. धीरे धीरे करके जब उसमें 20 से 25 हजार रुपए जमा हो गए तो हमारे यूनियन लीडर ने मुझे बुलाकर बोला तुम्हारे लिए मैंने पैसे इकट्ठे कर दिए अब बताओ इसका क्या करना है.
ऑफिस एक घंटे लेट आने की छूट मिली
मैंने उनसे बोला मैं इस पैसे से लोगों की मेडिकल और एजुकेशन में सहायता करना चाहती हूं. लेकिन अब मेरे सामने समय की कमी की परेशानी आ रही थी कि ऑफिस के साथ-साथ इस काम के लिए कैसे समय निकालूं. मैंने उनसे बोला कि ज्वॉइंट फैमिली और बच्चे के साथ जॉब कैसे होगी तो उन्होंने बोला कि मैं तुमको ऑफिस टाइमिंग से एक घंटे लेट आने की परमिशन दिला देता हूं. उस एक घंटे में तुम लोगों की सहायता करना.
हॉस्पिटल से भी सैंपल वाली दवाइयां मिलने लगीं
सिलसिला प्रारम्भ हुआ. मैं घर से प्रतिदिन ऑफिस के समय ही निकलती लेकिन वहां से इंदौर के सबसे प्रसिद्ध एमवाई सरकारी हॉस्पिटल जाती. वहां जाकर मैं सारे डिपार्टमेंट में देखा तो लगा इतने पैसे नहीं है जो सबकी सहायता हो सके, तो मैंने निर्णय लिया कि पीडियाट्रिक डिपार्टमेंट में ही सहायता के लिए पैसे लगाती हूं. जरूरतमंदों को हमने दवा के लिए सहायता करना प्रारम्भ की. जाने लगी तो जूनियर चिकित्सक से जान पहचान हो गई. उन्होंने मुझसे बोला कि कंपनियों के प्रतिनिधि (एमआर) आते रहते है, वो हमें सैंपल के तौर पर काफी दवाइयां देते है, वो भी आप ले लीजिए. मैंने उनसे का ये तो बहुत अच्छी बात है.
हमने वहां एक कम्पाउंडर रख लिया
एक दिन मैं जूनियर चिकित्सक असोसिएशन से मिली और बोला कि इन दवाइयों को कहां रखूं. रोज घर ले जाना फिर लाना मेरे लिए कठिन है. मुझे हॉस्पिटल में ही दवाइयां रखने की स्थान भी मिल गई. इसी तरह धीरे धीरे जब लोगों को पता चला तो वो हमसे जुड़ने लगे. काम बढ़ने लगा, इतनी अधिक दवाइयां आने लगी कि हमें समझ नहीं आता था कि कौन सी दवा किस काम के लिए है. तो हमने वहां एक कम्पाउंडर रख लिया. वो अभी भी वहां काम कर रहे हैं.
पति की मृत्यु के बाद डिस्टर्ब हो गई
बैंक के फंड के अतिरिक्त कुछ ऐसे लोग जुड़े जो हमें डोनेशन के नाम पर पैसों से सहायता करने लगे. सब कुछ ठीक चल रहा था लेकिन 1995 में मेरे पति की अचानक मृत्यु हो गई. जिसकी वजह से मैं काफी दिनों तक डिस्टर्ब रही. उन दिनों हमारे साथियों ने ही उस संस्था को संभाला. उसके बाद हमने उसका नाम बदलकर सहायक संस्था रख दिया. क्योंकि उसमें बाहर से भी लोग जुड़ने लगे थे. अब हर महीने एक से डेढ़ लाख रूपए की दवाइयां आती है.
शिक्षा के लिए उपचार करना बेहतर
मुझे एक दिन एहसास हुआ कि हम किसी की दवा देकर केवल उनके उपचार में सहायता कर सकते हैं. यदि सच में गरीबों की सहायता करनी है तो उन्हें पढ़ाना चाहिए. जब एक आदमी पढ़ लिख कर सक्षम बन जाएगा तो वो अपना उपचार भी करा लेगा.
आदिवासी बच्चों को पढ़ाती हूं
मेरी एक दोस्त थीं डाक्टर अनुराधा, जो आर्मी में मेडिकल सेवा देती थीं. उनका भी रुझान लोगों की सहायता करने में था. वह 1995 में आर्मी की जॉब से रिटायरमेंट लेकर इंदौर से 3 धंटे की दूर खरगोन शिफ्ट हो गईं. वहां उन्होंने अपनी पूरी जीवन गांव के आदिवासी बच्चों को पढ़ाने में लगा दी. मैं इस संस्था की ट्रस्टी थी, कभी कभी आती रहती. लेकिन अनुराध तो यहीं रहती थी. वो मुझे कहतीं- यहीं शिफ्ट हो जाओ, दोनों मिलकर काम करेंगे. लेकिन पारिवारिक जिम्मेदारियों की वजह से मैं यहां रुक नहीं पाती.
पिछले वर्ष मार्च में अनुराधा की अचानक कार्डिक अरेस्ट की वजह से मौत हो गई. मैंने 2007 में बैंक की जॉब से वीआरएस ले लिया. अब 12 एकड़ में फैले विद्यालय और हॉस्टल को मैं ही देख रही हूं. मैं परमानेंट यहीं शिफ्ट हो गई हूं. ये बहुत ही खूबसूरत स्थान है. पहले भी मैंने यहां अनुराधा के साथ हेल्थ कैंप में गांव-गांव जाकर लोगों को सतर्क करने का काम किया.
स्कूल में आज 200 बच्चे हैं
धीरे-धीरे कुछ बच्चों के पेरेंट्स को हम पर भरोसा हुआ तो उन्होंने अपने बच्चों को हमारे पास पढ़ने भेज दिया. 8-10 बच्चों से इस विद्यालय की शुरूआत हुई. धीरे-धीरे लोगों को हमपर विश्वास हुआ. आज विद्यालय में 200 बच्चे पढ़ रहे हैं. इनमें 35 बच्चे डिसएबल हैं जिनके लिए हमने स्पेशल टीचर अप्वाइंट किए हैं.
गांव में भी शीघ्र विवाह करने का चलन
यहां 12वीं तक का सरकारी विद्यालय भी है. मैं चाहती हूं कि जो बच्चे हमारे विद्यालय से पास आउट हो गए हैं उन्हें यहां एडमिशन मिल जाए. लेकिन अभी भी गांव में बच्चों की शीघ्र विवाह कर देते हैं. इसलिए बच्चे पढ़ाई छोड़कर खेती में लग जाते हैं. लेकिन कुछ बच्चे पढ़ रहे हैं. एक बच्चा मुझसे मिलने भी आया. जिससे मिलकर मुझे बहुत खुशी हुई. वो कह रहा था मैडम घर वाले विवाह का दबाव बना रहे हैं लेकिन मैंने इंकार कर दिया. मैं पढ़ना चाहता हूं.
बच्चियां मलखम बहुत अच्छा खेलती
लड़कियों को हम स्पोर्टस् के लिए भी प्रैक्टिस कराते हैं. हमारे विद्यालय की बच्चियां मलखम बहुत अच्छा खेलती हैं. वो नेशनल लेवल तक जा चुकी हैं. मलखम में खिलाड़ी मलखम रोप पर स्वयं को लटकाकर कर्तब दिखाता है. स्टूडेंट को ऑल राउंडर बनाने के लिए हम इन्हें आर्ट एंड क्राफ्ट, सिलाई कढ़ाई भी सिखाते हैं. हम हेल्थ कैंम्प और पीरियड्स अवेरनेस के लिए भी काम करते है. बच्चियों को सैनेटरी पैड बांटे जाते हैं. पैसों की परेशानी है. विद्यालय और हॉस्टल के लिए महीने के 4 से 5 लाख रुपए का खर्च आता है जिसका हर महीने व्यवस्था कर कठिन है. गवर्नमेंट की तरफ से एक रुपए की सहायता नहीं है.