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Bade Ghulam Ali Khan Death Anniversary : जानें इनके अनसुने किस्से

 मनोरंजन न्यूज डेस्क !!! उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ (अंग्रेज़ी: Bade Ghulam Ali Khan, जन्म: 2 अप्रॅल, 1902 – मृत्यु: 25 अप्रैल, 1968) की गणना हिंदुस्तान के महानतम गायकों और संगीतज्ञों में की जाती है. वे विलक्षण मधुर स्वर के स्वामी थे. इनके गायन को सुनकर श्रोता अपनी सुध-बुध खोकर कुछ समय के लिए स्वयं को खो देते थे. हिंदुस्तान के कोने-कोने से संगीत के पारखी लोग ख़ाँ साहब को गायन के लिए न्यौता भेजते थे. क्या राजघराने क्या हल्की विद्यालय के विद्यार्थी, ख़ाँ साहब की मखमली आवाज़ सभी को मंत्रमुग्ध कर देती थी.[1] दिल को छू जाने वाली आवाज़ के मालिक उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ ने नवेली शैली के ज़रिए ठुमरी को नयी आब और ताब दी. जानकारों के मुताबिक़ उस्ताद ने अपने प्रयोगधर्मी संगीत की बदौलत ठुमरी को जानी-पहचानी शैली की सीमाओं से बाहर निकाला.

जीवन परिचय

बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब का जन्म 2 अप्रॅल, 1902 को पाकिस्तानी पंजाब के प्रसिद्ध शहर लाहौर के पास स्थित गाँव केसुर में हुआ था.[3] बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ ने मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक शक्ति संगीत से ही प्राप्त की थी और यही कारण था कि उनके बोलचाल और हावभाव से यह ज़ाहिर हो जाता था कि यह शख़्सियत संगीत के प्रचार-प्रसार के लिए धरती पर अवतरित हुई है.[3] इनका परिवार संगीतज्ञों का परिवार था. इनके पिताजी का नाम अली बख्श ख़ाँ है. दिलचस्प है कि संगीत की दुनिया में उनकी आरंभ सारंगी वादक के रूप में हुई. उन्होंने अपने पिता अली बख्श ख़ाँ और चाचा काले ख़ाँ से संगीत की बारीकियाँ सीखीं. इनके पिता महाराजा कश्मीर के दरबारी गायक थे और वह घराना “कश्मीरी घराना” कहलाता था. जब ये लोग पटियाला जाकर रहने लगे तो यह घराना “पटियाला घराना” के नाम से जाना जाने लगा. दिखने में बहुत कड़क मिज़ाज और मज़बूत डील-डौल वाले बड़े ग़ुलाम अली ने सबरंग नाम से कई बंदिशें रचीं. उनकी सरगम का अंदाज़ एकदम निराला था. वर्ष 1947 में हिंदुस्तान के विभाजन के बाद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ पाक चले गए थे लेकिन संगीत के इस उपासक को पाक का माहौल क़तई पसंद नहीं आया. नतीजतन वह जल्द ही हिंदुस्तान लौट आए.

कैरियर

अपने सधे हुए कंठ के कारण बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ ने बहुत प्रसिद्धि पाई. 1919 में लाहौर के संगीत सम्मेलन में इन्होंने अपनी कला का पहली बार सार्वजनिक प्रदर्शन किया. फिर कोलकाता और इलाहाबाद के संगीत सम्मेलनों में इन्हें देशव्यापी ख्याति प्रदान की. भारतीय संगीत के फलक पर 1930 के दशक में सितारे की तरह चमके इस गायक ने वर्ष 1938 में तत्कालीन कलकत्ता में हुए एक कार्यक्रम में दुनिया के सामने पहली बार अपनी आवाज़ का जादू बिखेरा था. उसके बाद वह संगीत को आगे बढ़ाने और उसे समृद्ध करने की मुहिम में रम गए. ख़ाँ साहब किंवदंती गायक थे. गायन से ऐसा मोहजाल बुनते कि आपको उसमें उलझना ही है. मुग़ले आजम फ़िल्म में गाने के लिए उन्होंने एक गाने के 25 हज़ार रुपए माँग लिए थे क्योंकि वे फ़िल्म में गाना नहीं चाहते थे. निर्देशक के आसिफ ने 25 हज़ार रुपए देना स्वीकार कर लिया जबकि उस जमाने में लता मंगेशकर और मुहम्मद रफ़ी को एक गाने के पाँच सौ रुपए से भी कम मिलते थे.[3] बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ के मुंह से एक बार ‘राधेकृष्ण बोल’ भजन सुनकर महात्मा गांधी बहुत प्रभावित हुए थे.

जब नेहरूजी की बात का बुरा मान गए ख़ाँ साहब

बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब हिंदुस्तान की सबसे करिश्माई आवाज़ों में से एक थे, उनके हर कॉनसर्ट में हज़ारों की भीड़ उमड़ पड़ती थी. क़िस्सा उन दिनों का है जब बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ साहब एक कार्यक्रम के सिलसिले में कोलकाता आए हुए थे. उस समय राष्ट्र के पीएम पंडित जवाहरलाल नेहरू थे. नेहरू ख़ुद भी ख़ाँ साहब की गायकी के बड़े कद्रदानों में से एक थे. इत्तफाक़ ऐसा हुआ कि किसी आधिकारिक बैठक में हिस्सा लेने के लिए पंडित नेहरू भी कोलकाता में उपस्थित थे. जब उन्हें पता चला कि ख़ाँ साहब भी शहर में हैं तो उन्होंने तय किया कि कुछ समय निकाल कर उनकी गायकी का लुत्फ़ लिया जाए. उन्होंने उस होटल में टेलीफोन किया जहां ख़ाँ साहब ठहरे हुए थे और उनसे बात की.

ख़ाँ साहब के बारे में बोला जाता है कि वो ज़रा सख़्त मिज़ाज शख्स थे, अपनी शर्तों पर गाते थे. औपचारिक वार्ता के बाद पंडित नेहरू ने उनसे कहा, “तो ख़ाँ साहब, अब इत्तिफाक़ ऐसा हो गया है कि आप भी शहर में हैं और मेरे पास एक घंटे का समय भी है, सोचता हूँ एक महफिल आपके साथ हो जाए”. ख़ाँ साहब यूं तो पंडित नेहरू के दोस्त थे लेकिन उनकी ‘मेरे पास एक घंटा है’ वाली बात शायद उनको ज़रा नागवार गुज़री. कुछ लम्हों की शान्त के बाद बोले, “पंडित जी, वो तो ठीक है लेकिन आज रहने देते हैं” ये सुनकर पंडित नेहरू ने पूछा, “क्यों आज क्या परेशानी है” तो बड़े गुलाम अली ख़ाँ साहब ने तंज़िया अंदाज़ में मुस्कुराते हुए कहा, “वो क्या है पंडित जी, एक घंटे में तो केवल मेरा गला गर्म होता है”.

सम्मान एवं पुरस्कार

ख़ाँ साहब को हिंदुस्तान गवर्नमेंट के पद्म भूषण और संगीत नाटक अकादमी सम्मान से भी नवाज़ा गया है.

मृत्यु

हैदराबाद के नवाब जहीरयारजंग के बशीरबाग़ महल में चाँदनी और रेशम की शोभा वाली उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ाँ की आवाज़ 25 अप्रैल, 1968 को सो गई और बीते युग के पटियाला घराने का एक सुरीला अध्याय खत्म हो गया.

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