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चिपको आंदोलन : देश-दुनिया में बना एक बड़ी आवाज

चिपको आंदोलन एक ऐतिहासिक आंदोलन था, जो पर्यावरण बचाने के लिए देश-दुनिया में एक बड़ी आवाज बना आरंभ में यह आंदोलन वनों की कटाई के विरुद्ध एक पहल था वैसे वन हमेशा से स्त्रियों के सरोकार रहे हैं, इसलिए रेणी गांव की गौरा देवी के नेतृत्व में एक कंपनी, जिसे वनों की कटाई का ठेका दिया गया था, के विरोध में स्त्रियों ने पेड़ों से चिपक कर वनों की कटाई का विरोध किया प्रारम्भ में ऐसी बहुत सी घटनाएं घटी थीं, जो धीरे-धीरे एक साथ जुड़ती गयीं और इन घटनाओं ने एक बड़े आंदोलन का रूप ले लिया, जो पर्यावरण रक्षा के लिए आज एक आदर्श उदाहरण है

वह 1970 का ही दशक था, जब अलकनंदा के बाढ़ ने इस क्षेत्र में बड़ी तबाही मचायी थी इस तबाही के पीछे के प्रमुख कारणों में से एक अलकनंदा के जलागमों में वनों का अभाव भी था वहीं दूसरी तरफ, पर्यावरण लगातार बिगड़ता जा रहा था तो पर्यावरण के बिगड़ते जाने की बात को दृष्टि में रखते हुए, यह स्वीकार किया गया कि इस क्षेत्र में वनों की कमी और उसके कारण हो रहे विनाश के पीछे वनों की व्यावसायिक बिक्री है, जो विध्वंसक साबित हो रही है इन सभी कारणों के चलते ग्रामीणों द्वारा वन और पर्यावरण को बचाने के लिए चिपको आंदोलन की नींव रखी गयी इस आंदोलन की एक खासियत यह भी थी कि यह महज एक स्थान से प्रारम्भ नहीं हुआ, बल्कि कई स्थानों पर टुकड़ों-टुकड़ों में प्रारम्भ हुआ और फिर एक बड़ा राष्ट्रीय आंदोलन बन गया

यह आंदोलन विशेषकर टिहरी, चमोली जिले के मंडल गांव और रेणी गांव में हुआ रेणी गांव तो इस आंदोलन से विशेष रूप से जुड़ा रहा दूसरे शब्दों में कहें, तो टिहरी, मंडल और रेणी गांव- ये तीनों ही वे प्रमुख स्थल रहे, जहां हुए आंदोलनों के कारण चिपको आंदोलन ने राष्ट्रीय स्वरूप अख्तियार किया जिसके फलस्वरूप वनों को बचाने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर पहल प्रारम्भ हुई असल में, आरंभ में वनों की कटाई को लेकर इस क्षेत्र की स्त्रियों ने कड़ा विरोध जताया स्त्रियों के इस विरोध के चलते ही इस आंदोलन की नींव पड़ी, और फिर देखते-देखते यह आंदोलन वनों के महत्व, उत्तराखंड और हिमालय में हो रही अनेक गतिविधियां, अनेक विषमताओं, जिससे पारिस्थितिकी को नुकसान पहुंच रही थी, उन सबसे भी जुड़ता चला गया

यदि हम इस आंदोलन के बारे में विश्लेषण करें, तो पायेंगे कि इस आंदोलन का सबसे जरूरी हिस्सा यह था कि इसमें महिलाएं तो अग्रणी किरदार निभा ही रही थीं, इसके साथ ही तत्कालीन सामाजिक आंदोलनों से जुड़े लोग भी इससे जुड़ते गये और इस आंदोलन की मुखर आवाज बने उन लोगों में सुंदरलाल बहुगुणा और चंडी प्रसाद भट्ट का नाम प्रमुखता से लिया जा सकता है इसके साथ ही, उनके सर्वोदयी साथियों ने भी इस आंदोलन में जरूरी किरदार निभायी और सबने मिलकर इस आंदोलन को एक बेहतर दिशा दी यह चिपको आंदोलन की ही पहल थी, जिसके चलते राष्ट्र में वन नीति में परिवर्तन हुआ और विशेष रूप से हिमालय में एक हजार मीटर से ऊपर की ऊंचाई पर स्थित वनों की कटाई पर रोक लगा साथ ही, यह भी तय किया गया कि हिमालयी क्षेत्र में 65 फीसदी वन आवरण (फॉरेस्ट कवर) रहना चाहिए

मैदानी क्षेत्रों के लिए 33 फीसदी वन आवरण बने रहने की बात भी तय हुई कुल मिलाकर देखें, तो चिपको आंदोलन का जो सबसे जरूरी हिस्सा था, वह यह कि दुनिया में पहली बार पारिस्थितिकी और पर्यावरण को लेकर एक पहल की गयी अपनी इसी पहल के कारण यह आंदोलन विश्वव्यापी हो गया चिपको आंदोलन से जुड़े दूसरे जरूरी पहलू में इस बात पर बल दिया गया कि किस तरह से हम हिमालय को संवार सकते हैं, उसे सजा सकते हैं, विशेष रूप से प्रकृति और पारिस्थितिकी के दृष्टिकोण से, क्योंकि वह हिमालय ही है, जो हवा, मिट्टी, वन, पानी देश-दुनिया को देता है

इस लिहाज से देखें, तो चिपको आंदोलन का जो एक अत्यंत जरूरी भाग रहा, वह यह कि इसने क्षेत्रीय संसाधनों और उसके संरक्षण पर बहुत बल दिया इसमें गौरा देवी जैसी कर्मठ स्त्रियों ने अग्रणी किरदार निभायी और उनके पीछे तत्कालीन कार्यकर्ता सुदंरलाल बहुगुणा, चंडी प्रसाद भट्ट ने इस आंदोलन को एक पैनापन दिया और इसे विश्वव्यापी बनाया चिपको आंदोलन के 50 साल के बाद का सबसे जरूरी हिस्सा यही बोला जा सकता है कि तब से लेकर आज तक भी चिपको आंदोलन वह बड़ा असर नहीं बना पाया, जिसकी अपेक्षा थी इस अपेक्षा के पूरा न होने का सबसे बड़ा कारण यही है कि लोगों में अभी भी पर्यावरण और पेड़ों के प्रति एक गहरी समझ नहीं बन पायी है, बावजूद इसके कि पूरे विश्व में हो रहे अनेक बदलाव भी कहीं दुर्भाग्य से पारिस्थितिकी तंत्र को पूरा झकझोर चुके हैं

चिपको आंदोलन का यही बड़ा संदेश था कि वनों के चलते प्रकृति सुरक्षित रहती है हमने अनेक तरह की नीतियों में चिपको आंदोलन को कहीं न कहीं इस्तेमाल में लाने की प्रयास की, लेकिन चिपको आंदोलन उस समय कारगर होने के बाद आज भी कहीं इस अपेक्षा में है कि 1973 की वह आवाज कहीं एक बड़ा काम कर पाती, जो वो नहीं कर सकी (ये लेखक के निजी विचार हैं)

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