बीकानेर में मिलती है डेढ़ इंच की कचौरी, स्वाद ऐसा कि यहाँ के दीवाने हो जाएंगे आप
आमतौर पर आपने कई तरह की कचौड़ी खाई होंगी. लेकिन कभी आपने एक इंच की कचौड़ी खायी है क्या. या उसके बारे में सुना है. अगर नहीं तो आज हम आपको एक इंच की कचौड़ी के बारे में बताते हैं. बीकानेर में विश्व की सबसे छोटी कचौड़ी मिलती है. ये सिर्फ एक इंच की होती है. एक बार में व्यक्ति दो से तीन कचौड़ी एक साथ खा सकता है.
आमतौर पर कचौड़ी का साइज तीन इंच के आस पास होता है, लेकिन यहां एक से डेढ़ इंच की बनती है. अपने स्वाद के कारण इसकी डिमांड पूरी दुनिया में है. पीबीएम हॉस्पिटल के सामने बाबा कचौड़ी के यहां रोजाना 4 से 5 हजार कचौड़ी बनती है. इसे लोग कई नाम से जानते हैं.
4 पीढ़ी पुरानी दुकान
बाबा कचौड़ी दुकान चला रहे सुनील सांखी बताते हैं कि यह दुकान चार पीढ़ी पुरानी है. 25 साल पहले एक रुपए में 16 कचौड़ी आती थीं, लेकिन अब 10 रुपए में 4 कचौड़ी मिलती हैं. इस छोटी सी कचौड़ी को बनाने में दो घंटे का समय लगता है. इसमें बेसन, मैदा, गर्म मसाले आदि डाले जाते हैं. बाबा कचौड़ी का स्वाद ऐसा है कि इसे बच्चे से लेकर बुजुर्ग तक सब पसंद करते हैं. कचौड़ी में मिर्च मसाला कम डालते हैं, ताकि सभी लोग आसानी से खा सकें. बाबा की इस दुकान पर कचौड़ी के अलावा मिर्च बड़ा, कोफ्ता और समोसा 5 रुपए में मिलता है. ब्रेड बड़ा का दाम 10 रुपए है.
ये है डॉक्टर कचौड़ी
बाबा की दुकान अस्पताल के सामने है. इसलिए कचौड़ी खाने के लिए यहां डॉक्टरों की लाइन लगी रहती है. लोगों ने इसका नाम ही डॉक्टर कचौड़ी रख दिया है. इसे छोटी कचौड़ी भी कहते हैं.
ढाई रुपए में 10 कचौड़ी
इससे छोटी और सस्ती कचौड़ी पूरे भारत में कहीं नहीं मिलती. इसके लिए दुकान पर सुबह से शाम तक लाइन लगी रहती है. एक बार में दस 700 से 800 कचौड़ी बन जाती हैं. आमतौर पर 10 से 15 रुपए की कचौड़ी मिलती है, लेकिन बीकानेर में 10 रुपए की चार कचौड़ी मिल जाती हैं.
विदेश में भी डिमांड
सुनील ने बताया उनकी कचौड़ी विदेश तक जाती है. अमेरिका, पेरिस, जर्मनी और कनाडा से आए लोग यहां की कचौड़ी लेकर जाते हैं. कई बार तो उनके रिश्तेदार ही कचौरी की डिमांड करते हैं, तो वे ही अमेरिका या जर्मनी भेज देते हैं.
15 दिन तक नहीं होती खराब
सुनील ने बताया उनकी कचौड़ी 15 दिन से लेकर एक माह तक खराब नहीं होती. परिवार की चौथी पीढ़ी ये दुकान चला रही है. सुनील के परदादा ने ये दुकान खोली थी. उसके बाद दादा, पिता और अब वो खुद इस दुकान में काम कर रहे हैं.