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Pannalal Ghosh Death Anniversary : पुण्यतिथि पर जानें इनके अनसुने किस्से

मनोरंजन न्यूज डेस्क !!! पन्नालाल घोष (अंग्रेज़ी: Pannalal Ghosh, असली नाम ‘अमूल ज्योति घोष’, जन्म: 24 जुलाई[1], 1911 – मृत्यु: 20 अप्रैल, 1960) हिंदुस्तान के मशहूर बाँसुरी वादक थे. पंडित पन्नालाल घोष “बांसुरी के मसीहा” नई बांसुरी के जन्मदाता और भारतीय शास्त्रीय संगीत का युगपुरुष जिसने लोक वाद्य बाँसुरी को शास्त्रीय के रंग में ढालकर शास्त्रीय वाद्य यंत्र बना दिया.

जीवन परिचय

अमल ज्योति घोष के नाम से जाने जाने वाले पंडित पन्नालाल घोष का जन्म 24 जुलाई[1], 1911 में पूर्वी बंगाल के बारीसाल में हुआ था. प्रारम्भ में उनका परिवार अमरनाथगंज के गांव में रहता था जो बाद में फतेहपुर आ गया. उनका जन्म संगीत सुधी परिवार में हुआ था. उनके पिता अक्षय कुमार घोष सितार वादक थे और उनकी माँ सुकुमारी गायक थीं.

प्रारंभिक जीवन

हारमोनियम उस्ताद खुशी मोहम्मद ख़ान उनके पहले गुरु थे और ख्याल गायक पंडित गिरजा शंकर चक्रवर्ती एवं उस्ताद अलाउद्दीन ख़ान साहब से भी उन्होंने शिक्षा हासिल की थी. 1940 में पन्नाबाबू ने संगीत निर्देशक अनिल विश्वास की बहन और जानी मानी पार्श्व गायिका पारुल घोष से शादी कर लिया. इसके पहले 1938 में पन्नालाल घोष ने यूरोप का दौरा किया और वे उन आरंभिक शास्त्रीय संगीतकारों में से एक थे जिन्होंने विदेश में कार्यक्रम पेश किया.

बांसुरी के जन्मदाता

पन्नाबाबू शास्त्रीय बांसुरी के जन्मदाता हैं और उन्हें बांसुरी का देवदुत बोलना समीचीन होगा. जिन्हें बांसुरी को लोक वाद्य से शास्त्रीय वाद्य यंत्र के रूप में स्थापित करने का श्रेय जाता हैं. उनके अथक प्रयासों का ही रिज़ल्ट था कि 1930 में उनका पहला एलपी जारी हुआ. आने वाली सदियां पन्ना बाबू के काम को कभी भूल नहीं सकती हैं. उन्हीं का कोशिश है कि कृष्ण कन्हैया की बांसुरी का आज के फ्यूजन संगीत में भी अहम जगह है. बांसुरी को शास्त्रीय वाद्य के रूप में लोगों के दिलों में बसाने का काम पन्ना बाबू ने प्रारम्भ किया था और पंडित हरिप्रसाद चौरसिया जैसे बांसुरी वादकों ने इस वाद्य यंत्र को विदेशों में लोकप्रिय कर दिया. पन्नालाल जी ने कई फ़िल्मों में भी बांसुरी बजाई थी, जो आज भी अद्वितीय है. जिनमें मुग़ले आज़म, बसंत बहार, बसंत, दुहाई, अंजान और आंदोलन जैसी कई मशहूर फ़िल्में प्रमुख हैं जिसके संगीत के साथ पंडित पन्नालाल घोष का नाम जुड़ा रहा.

निधन

पारंपरिक भारतीय वाद्य यंत्र बांसुरी की अतुल्य विरासत अपने शिष्य और प्रशंसकों के हाथों में सौंप कर 20 अप्रैल 1960 में पन्नाबाबू हमेशा के लिए इस दुनिया से कूच कर गये. पन्नालाल जी की बांसुरी जब आज भी सुनते हैं तो उनकी मिठास तथा विविधता का कोई जोड़ नज़र नहीं आता. उनका बजाया हुआ राग मारवा तथा अन्य राग जब आज सुनते हैं तो अध्यात्मिक अहसास होने लगता है.

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