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Shiv Kumar Batalvi Death Anniversary : इनके पुण्यतिथि पर जानें इनके अनसुने किस्से

शिव कुमार बटालवी (अंग्रेज़ी: Shiv Kumar Batalvi, जन्म- 23 जुलाई, 1936; मृत्यु- 6 मई, 1973) पंजाबी भाषा के एक विख्यात कवि थे, जो उन रोमांटिक कविताओं के लिए सबसे अधिक जाने जाते हैं, जिनमें भावनाओं का उभार, करुणा, जुदाई और प्रेमी के दर्द का भली–भाँति चित्रण है. शिव कुमार बटालवी ऐसे शायर और कवि थे जो एक छोटी-सी जीवन में इतना नाम बना गये कि आज हिंदुस्तान में हर नौजवां के सीने में धड़कते हैं. उनके गीतों में ‘बिरह की पीड़ा’ इस कदर थी कि उस दौर की मशहूर कवयित्री अमृता प्रीतम ने उन्हें बिरह का सुल्तान नाम दे दिया. शिव कुमार बटालवी यानी पंजाब का वह शायर, जिसके गीत हिंदी में न आकर भी वह बहुत लोकप्रिय हो गया. उसने जो गीत अपनी गुम हुई महबूबा के लिए बतौर इश्तहार लिखा था, वो जब फ़िल्मों तक पहुंचा तो मानो हर कोई उसकी महबूबा को ढूंढ़ते हुए गा रहा था- “इक कुड़ी जिहदा नाम मोहब्बत गुम है”.

परिचय

शिव कुमार बटालवी की पैदाइश बड़ा पिंड लोहतियाँ, सियालकोट में 23 जुलाई, 1936 को हुई थी, जो कि अब पाक में है. बाद में वह अपने ख़ानदान के साथ हिंदुस्तान आ गए और बटाला में क़याम-पज़ीर हो गए. उन्होंने अपनी शुरुआती तालीम बटाला में ही हासिल की. उनके बचपन के इन वाक़िआत ने शिव कुमार बटालवी के अंदर के शायर को तामीर किया. हिजरत के दु:ख के साथ-साथ पंजाब के गाँवों की ज़िंदगी, क़िस्से-कहानियों की रवायत, उनके इर्द-गिर्द की महिलाओं की जीवन ने उनकी ज़हनी साख़्त को तराशा. ये सब चीज़ें उनकी शायरी में जगह-जगह दिखाई भी देती हैं.[1]

शिव कुमार बटालवी की ज़बान ठेठ पंजाबी है और उनकी शायरी में नज़र आने वाले इस्तिआरे भी अनेक गाँव की जीवन की तरफ़ झुकाव रखते हैं, उनकी शायरी में पंजाबी सूफ़ी शायरों की गूँज सुनाई देती है लेकिन इससे ये मुराद बिलकुल नहीं है कि उन्हें आलमी अदब से शग़फ़ नहीं था. शिव कुमार बटालवी ने उर्दू के साथ-साथ रूसी और दीगर ममालिक के अदब को ग़ौर से पढ़ा था.

शिक्षा

शिव कुमार बटालवी को गांव से बाहर पढ़ने भेजा गया था. पर असल में बाल बटालवी तो गांव की मिट्टी में ही किसी पौधे की तरह जड़े जमाए उग गया. जो बाहर गया तो बस एक प्रेत था. जो अपनी मुक्ति के लिए भटक रहा था. उनका गांव छूट जाना उन पर पहला प्रहार था. जिसका गहरा जख्म उन्हें सदैव पीड़ा देता रहा. आगे की पढ़ाई के लिए उनको कादियां के एस एन कॉलेज के कला विभाग में भेजा गया हालांकि दूसरे वर्ष ही उन्होंने उसे बीच में छोड़ दिया. उसके बाद उन्हें हिमाचल प्रदेश के बैजनाथ के एक विद्यालय में इंजीनियरिंग की पढ़ाई हेतु भेजा गया. पर पिछली बार की तरह ही उन्होंने उसे भी बीच में छोड़ दिया. इसके बाद उन्होंने नाभा के सरकारी कॉलेज में शोध किया. उनका बार-बार बीच में ही अभ्यास छोड़ देना, उनके भीतर पल रही तानाशाही और अनिश्चितता का बीजारोपण था. जो कुछ ही वर्षों बाद उन के लिए मौत का वृक्ष बन जाना था. पिता शिव कुमार बटालवी को कुछ बनता हुआ देखना चाहते थे. इसलिए गांव से दूर पढ़ाई के लिए उनको भेज दिया. उसके चलते फिर कभी पिता-पुत्र में नहीं बनी.[2]

प्रेम

किशोरावस्था में उन्हें पास ही के किसी गांव के मेले में एक लड़की से प्यार हो गया. उस लड़की का नाम मैना था जिसे ढूंढते हुए बटालवी उसके गांव तक गये थे. उस लड़की के भाई से दोस्‍ती गांठ ली थी और दोस्त से मिलने के नाम पर वो रोज मैना के गांव चले जाते; लेकिन मैना कुछ ही दिन में बीमार हुई और चल बसी. उसकी याद में फिर शिव कुमार बटालवी ने एक लंबी कविता लिखी ‘मैना’. युवावस्था में उन्हें फिर पंजाबी लेखक गुरबख्श सिंह प्रीतलड़ी की बेटी से प्यार हो गया. दोनों के बीच जाति भेद होने के कारण उनका शादी नहीं हो पाया और लड़की की विवाह किसी ब्रिटिश नागरिक से करा दी गई. इस “गुम हुई लड़की” पर शिव कुमार बटालवी ने ‘इश्तेहार’ शीर्षक से कविता लिखी-

गुम है गुम है गुम है
इक कुड़ी जिहदा नाम मोहब्बत
गुम है गुम है गुम है
साद मुरादी सोहणी फब्बत
गुम है गुम है गुम है

सूरत उसदी परियां वरगी
सीरत दी ओह मरियम लगदी
हसदी है तां फुल्ल झड़दे ने
तुरदी है तां ग़ज़ल है लगदी
लम्म सलम्मी सरूं क़द दी
उम्र अजे है मर के अग्ग दी

बिरह का सुल्तान

प्यार की बिरह पीड़ा शिव कुमार बटालवी की कविता में तीव्रता से प्रतिबिंबित होती है| कहते हैं कि प्रेम के विरह की पीड़ा जब कभी बढ़ जाती, तो शिव शराब में चूर होकर चंडीगढ़ में चौराहे पर लैम्प-पोस्ट के नीचे रात-रात भर खड़े कविताएं गाते रहते. शिव कुमार बटालवी की रचनाओं में विरह और दर्द का रेट अति प्रबल रहा है. शायद इसीलिए अमृता प्रीतम ने इन्हें बिरह का सुल्तान बोला था. उनकी रचनाओं में निराशा और मौत की ख़्वाहिश प्रबल रूप से दिखाई पड़ती है.

एह मेरा गीत किसे ना गाणा
एह मेरा गीत मैं आपे गा के
भलके ही मर जाणा

रचनाएँ

सिर्फ दर्द और विरह की कविताएं ही शिव कुमार बटालवी ने नहीं लिखी. कविता में गांव की सौंधी मिट्टी की खुशबू और स्थानीयता को भी केन्द्र में रखते हुए अपनी कविताओं को जन जन तक पहुंचाया और लोकप्रिय हुए. शिव की कविताएं पूरे पंजाब में लोकगीतों की तरह सुनी-गाई जाने लगीं. हिन्दुस्तान से अधिक पाक में उन्हें गाया गया. जहां उनका जन्म हुआ. फिर बंटवारे के समय हिंदुस्तान आना पड़ा. पर उनकी कविताओं ने सरहदों को लांघ दिया था. वो स्वयं सुरीली आवाज में कविताएं सुनाते थे. उनकी कविताओं की लोकप्रियता की एक वजह यह भी थी. केवल 24 वर्ष की उम्र में शिव कुमार बटालवी की कविताओं का पहला संकलन “पीड़ां दा परागा” प्रकाशित हुआ, जो उन दिनों काफी चर्चित रहा.[2]

सन 1965 में अपनी जरूरी कृति काव्य नाटिका “लूणा” के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला. साहित्य अकादमी पुरस्कार पाने वाले वे सबसे कम उम्र के साहित्यकार बने. उस समय शिव की उम्र मात्र 28 वर्ष थी. “लूणा” शिव कुमार बटालवी की अमर प्रस्तुति है. एक पुरुष होते हुए भी एक महिला के दर्द को समझा, महसूस किया और उसे अपनी कलम से बयां किया. “लूणा” जो कि एक ऐतिहासिक कविता का रूप है, जो कि आधुनिक पंजाबी साहित्य की अद्धभुत रचना मानी जाती है और जिसने आधुनिक पंजाबी किस्सागोई की एक नयी शैली की स्थापना की.

शिव कुमार बटालवी की मशहूर काव्य रचनायें हैं- ‘पीड़ां दा परागा’, ‘लाजवंती’, ‘आटे दीयां चिड़ियां’, ‘मैनूं विदा करो’, ‘दरदमन्दां दीआं आहीं’, ‘लूणां’, ‘मैं ते मैं’ ‘आरती’ और ‘बिरह दा सुल्तान’.[3]

नुसरत फ़तेह अली ख़ाँ द्वारा नज्म गायन

शिव कुमार बटालवी की नज्मों को सबसे पहले [[नुसरत फ़तेह अली ख़ाँ]] ने अपनी आवाज दी. नुसरत ने उनकी कविता ‘मायें नी मायें मेरे गीतां दे नैणां विच’ को गाया था. इसके बाद तो जगजीत सिंह, चित्रा सिंह, रबी शेरगिल, हंस राज हंस, दीदार सिंह परदेसी और सुरिंदर कौर जैसे कई गायकों ने बटालवी की कविताएं गाईं. पंजाबी शायर बटालवी उन चंद उस्तादों में गिने जाते है जिनका नाम इंडो-पाक बार्डर पर काफी फेमस हैं, जैसे मोहन सिंह और अमृता प्रीतम. अमृता प्रीतम के बाद शिव कुमार बटालवी ऐसे कवि हैं जिनका पूरा कलाम पाक में भी छपा है.

कवि सम्मेलन से दूरी

लोगों के दोहरे व्यवहार और नकलीपन की वजह से शिव कुमार बटालवी ने कवि सम्मेलनों में जाना बंद कर दिया था. एक मित्र के बार-बार आग्रह करने पर वे 1970 में बम्बई के एक कवि सम्मलेन में शामिल हुए थे. मंच पर पहुँचने के बाद जब उन्होंने कहा तो पूरे हॉल में सन्नाटा छा गया. उन्होंने कहा कि आज हर आदमी स्वयं को कवि समझने लगा है, गली में बैठा कोई भी आदमी कवितायें लिख रहा है. इतना बोलने के बाद उन्होंने अपनी सबसे मशहूर रचना ‘इक कुड़ी जिदा नाम मोहब्बत है, गुम है’ सुनाई. इस पूरे पाठ के दौरान हॉल में सन्नाटा बना रहा. सच बोला जाए तो शिव कुमार बटालवी कभी दुःख से बाहर निकल ही नहीं पाए. उन्हें हर समय कुछ न कुछ काटता ही रहा. कभी उन्हें अपनी पुरानी प्रेमिकाओं की बेवफाई याद आती रही तो कभी लोगों के नकलीपन से वे चिढ़ते रहे. इसी दौरान उन्हें ‘बिरहा दा सुल्तान’ बोला जाने लगा. मतलब ऐसा व्यक्ति, जिसके जीवन में दुःख ही दुःख है.

मृत्यु

शिव कुमार बटालवी शादी के बाद चंडीगढ़ चले गये थे. वहां वे स्टेट बैंक ऑफ़ इण्डिया में कार्यरत रहे. आखिरी कुछ सालों में वे खराब स्वास्थ्य से त्रस्त रहे, हालांकि उन्होंने बेहतर लेखन जारी रखा. उनके लेखन में हमेशा से मौत की ख़्वाहिश साफ रही थी और 7 मई, 1973 को केवल 36 वर्ष की उम्र में शराब की दुसाध्य लत के कारण हुए लीवर सिरोसिस की वजह से, पठानकोट के किरी मांग्याल में अपने ससुर के घर पर शिव कुमार बटालवी सदा के लिए मौत की गोद में सो गए

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