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इस चुनाव में कांग्रेस को मिले थे सबसे ज्यादा वोट, फिर भी नहीं मिली थी जीत

Lok Sabha Election Throwback: 11वीं लोकसभा भले ही अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर पाई, लेकिन उस छोटे से कार्यकाल में राष्ट्र की राजनीति में बहुत कुछ ऐसा हुआ, जो न पहले कभी हुआ था, न ही अब तक हुआ. बीजेपी पहली बार सबसे बड़े दल के रूप में उभरी. अटल बिहारी वाजपेयी पहली दफा पीएम बने, लेकिन ऐसे पीएम के रूप में रिकॉर्ड बनाया, जो केवल 13 दिन कुर्सी पर रह सका.

जी हां, यह रिकॉर्ड अटल बिहारी वाजपेयी के नाम पर आज तक भी है. इसी लोकसभा ने 2 वर्ष में 3-3 पीएम देखने को मिले. कार्यकाल फिर भी पूरा नहीं हुआ और राष्ट्र तीसरी बार मध्यावधि चुनाव का सामना करने को विवश हुआ. इसके बाद वर्ष 1998 में हिंदुस्तान में फिर से आम चुनाव हुए. 11वीं लोकसभा के चुनाव में कांग्रेस पार्टी को सबसे अधिक 29 प्रतिशत वोट मिले थे, फिर भी पार्टी चुनाव हार गई थी.

किसी को नहीं मिला बहुमत, 2 वर्ष में 3 पीएम देखें

11वीं लोकसभा के चुनाव में भारतीय मतदाताओं ने सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी की नरसिंह राव गवर्नमेंट को हटा दिया था, लेकिन किसी को बहुमत भी नहीं दिया था. बीजेपी सबसे बड़े दल के रूप में सामने आई, जिसे 161 सीटें मिलीं. इसी कारण तब के राष्ट्रपति रहे पंडित शंकर दयाल शर्मा ने बीजेपी संसदीय दल के नेता अटल बिहारी वाजपेयी को गवर्नमेंट बनाने को आमंत्रित किया. उन्होंने शपथ ली, लेकिन केवल 13 दिन में त्याग-पत्र देना पड़ गया, क्योंकि उन्हें बहुमत के लिए महत्वपूर्ण समर्थन नहीं मिल सका.

फिर विपक्षी दलों ने मिलकर गठबंधन बनाया और एचडी देवेगौड़ा ने पीएम पद की शपथ ली. यह दूसरा मौका था, जब दक्षिण भारतीय राज्य से आने वाले नेता ने पीएम पद की शपथ ली. इससे पहले नरसिंह राव को यह अवसर मिला था. चुनाव के बाद बना यह गठबंधन बहुत दिन तक नहीं चला और देवेगौड़ा को बमुश्किल डेढ़ वर्ष में ही त्याग-पत्र देना पड़ा. उन्हीं की गवर्नमेंट में मंत्री रहे इन्द्र कुमार गुजराल कांग्रेस पार्टी के समर्थन से 11वीं लोकसभा में तीसरे पीएम बने. बहुत साफ-सुथरे आईके गुजराल की गवर्नमेंट भी कुछ महीने ही चली. फिर 1998 में एक बार फिर आम चुनाव हुए.

वोटों का बंटवारा, क्षेत्रीय दलों की संसद में मजबूत दस्तक

11वीं लोकसभा के चुनाव रिज़ल्ट आने प्रारम्भ हुए तो अहसास होने लगा था कि हंग पार्लियामेंट के गठन के आसार हैं. इस चुनाव में 20 प्रतिशत से कुछ अधिक वोट पाने वाली बीजेपी 161 सीटें जीतने में सफल हुई तो लगभग 29 प्रतिशत वोट लेने वाले कांग्रेस पार्टी को केवल 140 सीटें ही मिल सकीं. 10वीं लोकसभा की तर्ज पर जनता दल 46 सीटों पर जीत दर्ज करके तीसरे सबसे बड़े दल के रूप में सामने आया. इस चुनाव में जनता दल के अतिरिक्त 8 ऐसे दल भी थे, जिनके सांसदों की संख्या दहाई में थी. यही वजह थी कि उस चुनाव में किसी भी दल को बहुमत नहीं मिल सका. वोटों का खूब बंटवारा हुआ. यह भी कह सकते हैं कि क्षेत्रीय दलों ने अपना विस्तार किया. वे मतदाताओं के बीच अपनी बात पहुंचाने में सफल रहे.

14 हजार कैंडिडेट्स मैदान में उतरे, क्षेत्रीय दल भी उभरे

सभी 543 सीटों पर चुनाव एक साथ हुए थे. लगभग 58 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट डाले थे. 14 हजार कैंडिडेट्स मैदान में थे. इनमें 10 हजार से कुछ अधिक तो निर्दलीय थे, जिनमें से केवल 9 जीते थे. 8 राष्ट्रीय सियासी दल, 30 क्षेत्रीय सियासी दलों ने भी मजबूत भागीदारी दिखाई थी. 171 नए दल और इतनी बड़ी संख्या में कैंडिडेट इस बात का संकेत दे रहे थे कि आम भारतीय नागरिक अब राजनीति में गहरी रुचि लेने लगा है. यह भी कि आम लोगों में संसद पहुंचने की ललक भी बढ़ी है. यह पढ़ाई-लिखाई का स्तर बढ़ने का असर भी हो सकता है या फिर रोल मॉडल बने नेताओं का आम जनमानस पर असर हो सकता है. यही वह समय था, जब राजनीति में बड़ी संख्या में आपराधिक प्रवृत्ति के लोगों ने दस्तक दे दी थी.

वोट अधिक मिले, सीटें कम हुईं, बीजेपी का हुआ विस्तार

यह पहला चुनाव था, जब कांग्रेस पार्टी को वोट भले ही सबसे अधिक मिले, लेकिन सीटें देशभर में कम हुईं और बीजेपी का राज्यों में विस्तार हुआ. इसलिए कम मत पाने के बावजूद उसे सीटें अधिक मिलीं. यह कांग्रेस पार्टी के लिए खतरे की घंटी थी. इस दल ने स्वयं में कोई सुधार भी नहीं किया, क्योंकि बाद में कांग्रेस पार्टी के नेतृत्व में भले ही 2 बार गवर्नमेंट बनी, लेकिन एक सियासी दल के रूप में उसका प्रदर्शन कभी औसत तो कभी औसत से भी नीचे ही चल रहा है. राष्ट्र में अस्थिरता का यह दौर लंबे समय तक चला. इस बीच बीजेपी ने बहुत बढ़िया प्रदर्शन किया और उसमें लगातार सुधार भी दिखाई दे रहा है. इस तरह अनेक खट्टे-मीठे परिणामों के बीच राष्ट्र ने 1998 में फिर से आम चुनाव देखा.

 

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