राष्ट्रीय

भारत में 6000 ईसा पूर्व से लेकर हजारों हजार सालों से लोकतांत्रिक व्यवस्था रही है मौजूद

नई दिल्ली क्या आप जानते हैं कि हिंदुस्तान में आज से नहीं बल्कि 6000 ईसा पूर्व से लेकर हजारों हजार वर्षों से लोकतांत्रिक प्रबंध उपस्थित रही है? अकबर “समझदार राजा” थे; छत्रपति शिवाजी ने ‘लोकतंत्र की विरासत’ छोड़ी; और सम्राट अशोक के काल में हर पांच वर्ष में मंत्रियों का चुनाव होता था? या किस तरह स्वतंत्र हिंदुस्तान ने अपने अब तक के 17 राष्ट्रीय चुनावों और 400 से अधिक राज्य चुनावों के जरिए सत्ता का शांतिपूर्ण बदलाव किया है, जो उसके लिए गौरव की बात है यहां तक ​​कि रामायण और महाभारत में भी लोकतंत्र के तत्व मिलते हैं, क्योंकि ईश्वर राम को उनके पिता ने मंत्रिपरिषद की स्वीकृति और परामर्श के बाद राजा के रूप में चुना था

जी20 की अध्यक्षता के अनुसार बैठकों के लिए हिंदुस्तान में आने वाले विदेशी प्रतिनिधियों को दो पुस्तिकाओं- ‘भारत, लोकतंत्र की जननी’ और  ‘भारत में चुनाव- 1951-52 और 2019 के चुनावों पर तुलनात्मक नजर’ के जरिये इस तरह की हिंदुस्तान से जुड़ी जानकारी बताई जा सकती है News18 ने इसकी समीक्षा की
जी20 की आधिकारिक वेबसाइट पर हाल ही में यह बुकलेट अपलोड की गई है जिसमें बोला गया है, ‘चुनाव हुए और होते रहेंगे, लोकतांत्रिक लोकाचार सहस्राब्दियों से लोगों का हिस्सा रहा है

शिवाजी, अकबर और अशोक
पुस्तिका में कहा गया है कि किस तरह छत्रपति शिवाजी ऐसे शासन के समर्थक थे जहां प्रतिनिधि अपने कर्तव्यों के प्रति सतर्क थे और लोगों को समान अधिकार प्राप्त थे कैसे शिवाजी की जनता द्वारा ‘लोकतंत्र की विरासत’ को उनके उत्तराधिकारियों ने आगे बढ़ाया पुस्तिका में लिखा गया है कि, शिवाजी ने आठ मंत्रियों को नियुक्त किया, जो विकेंद्रीकरण के जरिये राज्य पर शासन का अगुवाई करते थे, और यहां तक कि राजा भी उनकी राय को खारिज नहीं कर सकते थे

पुस्तिका में अकबर को एक समझदार राजा के तौर पर वर्णित किया गया है, जिनकी लोकतांत्रिक समझ अपने समय से कहीं आगे थी वह इस बात पर पूरा भरोसा रखते थे कि अच्छे प्रशासन का मतलब सभी का भला, और इसी तरह के लोकतंत्र को उन्होंने अपनाया पुस्तिका कहती है, ‘अकबर ने धार्मिक भेदभाव के विरुद्ध ‘सुलह-ए-कुल’ यानी सार्वभौमिक शांति का सिद्धांत पेश किया उन्होंने गैर-मुसलमानों पर लगाए जाने वाले जजिया कर को खत्म किया एक सामंजस्यपूर्ण समाज बनाने के लिए, उन्होंने एक नए धर्म की स्थापना की, जिसे ‘दीन-ए-इलाही’ या ईश्वरीय आस्था के नाम से जाना जाता है… उनके राज में नौ बुद्धिमान लोगों का एक सलाहकार समूह था जिसे नवरत्न के रूप में जाना जाता है, इन्होंने उनकी जन-समर्थक योजनाओं को लागू करने में अहम कार्य किया

पुस्तिका में यह भी कहा गया है कि 265-238 ईसा पूर्व में सम्राट अशोक की नीतियों में जनकल्याण प्राथमिक और केंद्र था उन्होंने, वास्तव में, हर पांच वर्ष में मंत्रियों का व्यवस्थित चुनाव प्रारम्भ किया पुस्तिका में बोला गया है, ‘अशोक की शांति, कल्याण और सार्वभौमिक भाईचारे की विचारधाराएं आज भी भारतीय उपमहाद्वीप में उनके शिलालेखों के रूप में संरक्षित हैं और हिंदुस्तान का राष्ट्रीय प्रतीक अशोक की राजधानी से है, जो हिंदुस्तान में लोकतंत्र की लगातार याद दिलाता है

भगवान राम और युधिष्ठिर
पुस्तिका में रामायण और महाभारत के काल में भी लोकतांत्रिक तत्वों का हवाला देते हुए बोला गया है, ‘लोगों के कल्याण के लिए शासन प्राचीनकाल से हिंदुस्तान में सभी विचारों की केंद्रीय खासियत थी इसके लिए रामायण से बेहतर कोई उदाहरण नहीं है… जब अयोध्या के प्राचीन साम्राज्य को एक नए राजा की जरूरत थी, तो पुराने राजा दशरथ ने अपने मंत्रिपरिषद और जन प्रतिनिधियों की स्वीकृति मांगी उन्होंने समाज के सभी वर्गों के साथ विस्तृत विचार-विमर्श के बाद सर्वसम्मति से राम को लोगों की पसंद के रूप में पुष्टि की’ पुस्तिका में बोला गया है, ‘राजा को उनके लोगों द्वारा चुना गया था’ पुस्तिका में इस बात का उल्लेख भी किया गया है कि महाभारत में मरते हुए पितामह भीम ने अपने पोते युधिष्ठिर को अच्छे शासन के सिद्धांत बताए थे, एक राजा के धर्म का सार अपनी प्रजा की समृद्धि और खुशी को सुरक्षित करना है  

शासकों का चुनाव
इसमें यह भी कहा गया है कि कैसे कृष्णदेव राय ने 14-16वीं ईस्वी में सहभागी शासन के सिद्धांत पर दक्षिण हिंदुस्तान के विजयनगर पर शासन किया था वहीं ऋग्वेद जैसे प्राचीन भारतीय ग्रंथ में समानता का उल्लेख मिलता है जो लोकतंत्र की आत्मा है पुस्तिका में दक्षिण हिंदुस्तान के उथिरामेरुर में एक मंदिर की दीवारों पर हजारों वर्ष पहले शासक परांतक चोल द्वारा बनाए गए शिलालेखों का भी हवाला दिया गया है, जो 919 ईस्वी में लोकतांत्रिक चुनावों और क्षेत्रीय स्वशासन की प्रथा के प्रमाण को प्रस्तुत करती है डॉक्यूमेंट्स यह भी बताते हैं कि खलीमपुर शिलालेखों में दर्ज है कि, नौंवी सदी में, एक अयोग्य शासक के जगह पर लोगों ने सम्राट गोपाल को चुना था लोगों द्वारा अपने राजा को चुनने के इतिहास में कई संदर्भ मिलते हैं रुद्ररमन1, राजा खेरवाला और यहां तक कि यूपी में प्रयागराज में हिंदुस्तान के स्वर्ण काल यानी गुप्त युग के समुद्रगुप्त के स्तंभ में ही इसी तरह के सिद्धांतों का उल्लेख मिलता है पुस्तिका में ‘चुनने और बदलने की ताकत’ पर बल देते हुए बोला गया है कि हिंदुस्तानियों ने इतिहास में इसका आनंद उठाया है

 

Related Articles

Back to top button