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भाजपा से जुड़ा एसबीआई के भय का राज

सरकारी मशीनरी डंडे के बल से काम करती है. इसका उदाहरण चुनावी बांड के खुलासे से हो गया. स्टेट बैंक ऑफ इण्डिया (एसबीआई) ने इस मुद्दे को टरकाने के कोशिश किए किन्तु उच्चतम न्यायालय के सामने दाल नहीं गल सकी. बांड के जरिए चुनावी चंदा देने वाले उद्योगपतियों के नाम और राशि छिपाने के एसबीआई के सारे प्रयासों पर उच्चतम न्यायालय ने पानी फेर दिया. एसबीआई की मंशा थी कि इस चंदे के मुद्दे का खुलासा जून महीने के बाद किया जाए ताकि लोकसभा चुनाव सम्पन्न होने के बाद इस मुद्दे को आने वाली केंद्र गवर्नमेंट संभाल सके. एसबीआई ने इस बांड खुलासे की अवधि को लंबा खींचने के लिए कई तरह के बहाने बनाए. उच्चतम न्यायालय ने इस मुद्दे में साफ कह दिया कि यदि निर्धारित तारीख तक इसकी जानकारी चुनाव आयोग को नहीं दी गई और चंदे का ब्यौरा सार्वजनिक नहीं किया गया तो कठोर कार्रवाई की जाएगी.

सुप्रीम न्यायालय के आदेश के बाद भारतीय चुनाव आयोग ने 14 मार्च को चुनावी बॉन्ड से जुड़े डेटा को जारी किया था. चुनावी बॉन्ड यानी इलेक्टोरल बॉन्ड से जुड़ा डेटा वही डेटा है जिसे चुनाव आयोग के साथ 12 मार्च को एसबीआई ने शेयर किया था. चुनाव आयोग की वेबसाइट पर 2 लिस्ट जारी किए गए हैं. इसमें कुल 763 पन्ने हैं जिनमें चुनावी बॉन्ड खरीदने वाली कंपनियों और लोगों के नाम शामिल हैं. उच्चतम न्यायालय की कठोरता के सामने एसबीआई ने घुटने टेक दिए. जिस विवरण को जुटाने के लिए जून माह तक समय मांगा जा रहा था, उसे एसबीआई ने चंद दिनों में ही पूरा कर दिखाया. इससे जाहिर है कि कार्रवाई के भय से सरकारी तंत्र तूफान की गति से काम कर सकता है. सरकारी मशीनरी में लगी जंग तभी हटती है उच्चतम न्यायालय जैसे आदेशों की पालना करनी होती है.

गौरतलब है कि यह पहला मौका नहीं है जब किसी सरकारी विभाग ने न्यायालय के भय के मारे घोड़े की गति से काम किया है. कोयला घोटाले स्टेटस रिपोर्ट के मुद्दे में केंद्रीय जांच ब्यूरो इसका दूसरा बड़ा उदाहरण है. उच्चतम न्यायालय ने इस मुद्दे में कानून मंत्री और पीएमओ की दखलअंदाजी को लेकर नाराजगी जाहिर की थी. नाराजगी जताते हुए उच्चतम न्यायालय ने तल्ख शब्दों में बोला था कि CBI के कई मास्टर हैं और जांच एजेंसी पिंजड़े में कैद तोते जैसी है. गवर्नमेंट को फटकार लगाते हुए उच्चतम न्यायालय ने बोला था कि जब CBI स्वतंत्र ही नहीं है तो वो निष्पक्ष जांच कैसे कर सकती है. उच्चतम न्यायालय ने बोला कि CBI वो तोता है जो पिंजरे में कैद है जबकि CBI एक स्वायत्त संस्था है और उसे अपनी स्वायत्ता बरकरार रखनी चाहिए. CBI को एक तोते की तरह अपने मास्टर की बातें नहीं दोहरानी चाहिए. एसबीआई ने भी CBI की तरह व्यवहार किया है. इस पर उच्चतम न्यायालय को कठोरता दिखाने पर मजबूर होना पड़ा. एसबीआई फिर भी होशियारी दिखा रही है. न्यायालय ने बैंक से पूछा है कि बॉन्ड नंबरों का खुलासा क्यों नहीं किया. बैंक ने अल्फा न्यूमिरिक नंबर क्यों नहीं बताया. न्यायालय ने एसबीआई को बॉन्ड नंबर का खुलासा करने का आदेश दिया है. न्यायालय का आदेश है कि सील कवर में रखा गया डेटा चुनाव आयोग को दिया जाए, क्योंकि उनको इसे अपलोड करना है. न्यायालय ने बोला कि बॉन्ड खरीदने और भुनाने की तारीख बतानी चाहिए थी. दरअसल यूनिक आईडी हर एक बॉन्ड का यूनिक नंबर होता है. इसके जरिए सरलता से यह पता लगाया जा सकेगा कि आखिर किस कंपनी या आदमी ने किस पार्टी को चंदा दिया है. चंदा देने वाले और चंदा पाने वालों की सभी जानकारी एक ही जगह पर मौजूद रहेगी. इस मुद्दे पर उच्चतम न्यायालय का बोलना है कि बॉन्ड नंबरों से पता चल सकेगा कि किस दानदाता ने किस पार्टी को कितना चंदा दिया है.

केंद्र गवर्नमेंट की इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम शुरु से ही विवादों में घिरी रही है. इस स्कीम के अनुसार जनवरी 2018 और जनवरी 2024 के बीच 16,518 करोड़ रुपये के इलेक्टोरल बॉन्ड खऱीदे गए थे और इसमें से ज़्यादातर राशि सियासी दलों को चुनावी फंडिंग के तौर पर दी गई थी. इस राशि का सबसे बड़ा हिस्सा केंद्र में सत्तारूढ़ बीजेपी को मिला था. इन बॉन्ड्स पर पारदर्शिता को लेकर कई प्रश्न उठ रहे थे और ये इल्जाम लग रहा था कि ये योजना मनी लॉन्डरिंग या काले धन को सफ़ेद करने के लिए इस्तेमाल हो रही थी. इलेक्टोरल बॉन्ड्स की वैधता पर प्रश्न उठाते हुए एसोसिएशन फ़ॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर), कॉमन कॉज़ और मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी समेत पांच याचिकाकर्ताओं ने उच्चतम न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया था. एडीआर के संस्थापक और ट्रस्टी प्रोफ़ेसर जगदीप छोकर ने बोला कि यह निर्णय क़ाबिल-ए प्रशंसा है. इसका असर ये होगा कि इलेक्टोरल बॉन्ड्स स्कीम बंद हो जाएगी और जो कॉरपोरेट्स की तरफ से सियासी दलों को पैसा दिया जाता था जिसके बारे में आम जनता को कुछ भी पता नहीं होता था, वो बंद हो जाएगा. इस मुद्दे में जो पारदर्शिता इलेक्टोरल बॉन्ड्स स्कीम ने ख़त्म की थी वो वापस आ जाएगी. इस मुद्दे से बतौर याचिकाकर्ता जुड़े रहे मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी कहते हैं कि ये स्कीम गैरकानूनी थी और लेवल प्लेइंग फील्ड (समान अवसर) को ख़त्म करती थी. येचुरी ने बोला कि प्रारम्भ से ही उनकी और उनकी पार्टी की राय ये थी कि इलेक्टोरल बॉन्ड सियासी करप्शन को वैध बनाने का साधन है.

सीताराम येचुरी कहते हैं कि ठीक तो यही होगा कि पैसा वापस किया जाए क्योंकि ये स्कीम ही गैरकानूनी है. लेकिन हम चाहते हैं कि जिन कंपनियों ने ये पैसा सियासी दलों को दान किया ये उन्हें वापस न जाए. ये पैसा सरकारी खाते में जमा होना चाहिए और चुनावों के स्टेट फंडिंग की योजना को प्रारम्भ किया जाना चाहिए. भाजपा नेता रविशंकर प्रसाद ने बोला कि ये फैसला एक बहुत ही प्रामाणिक उद्देश्य के लिए लाया गया था. चुनाव में पारदर्शिता हो फंडिंग में, इसके लिए लाया गया था. चुनाव में कैश का असर कम हो उसके लिए भी लाया गया था. इस बात को समझना बहुत आवश्यक है. हमारे जितने चंदा देने वाले लोग हैं उनकी अपेक्षा थी कि मुनासिब होगा कि हमारे लिए भी एक गोपनीयता रखी जाए. उन्होंने बोला कि कोई गवर्नमेंट हार गई और उनके विरोधी दूसरी स्थान आए तो वो चंदा देने वालों के खि़लाफ़ हो जाते हैं. इसलिए कोई ईमानदारी से बिजऩेस कर रहे हैं तो वो अपना काम करें. इलेक्टोरल बॉन्ड ख़त्म होने से चुनाव की फ़ंडिंग पर बहुत कम फ़र्क पड़ता है क्योंकि चुनावी फंडिंग का ज़्यादातर हिस्सा नक़दी में आता है. ये फ़ैसला सिर्फ़ फंडिंग की पारदर्शिता की दृष्टि से जरूरी है. सत्तारूढ़ दल को धन मिलता रहेगा जबकि विपक्ष के धन का साधन कम हो जाएगा. कोर्ट ने बार-बार गवर्नमेंट के साथ सीधे विवाद से दूर रहने का विकल्प चुना है, ख़ासकर गवर्नमेंट की प्रमुख प्राथमिकताओं या अन्य जरूरी मुद्दों पर. वैसे ये फ़ैसला सर्वसम्मति से लिया गया है तो ये बताता है कि न्यायाधीशों ने दृढ़ता से महसूस किया कि बॉन्ड योजना कानूनी रूप से अस्थिर थी.

सीबीआई की तरह एसबीआई की चुनावी फंड के मुद्दे में हुई किरकिरी से साबित हो गया है कि पिंजरे का तोता केवल एक ही विभाग नहीं हैं. सरकारी विभाग सत्तारुढ़ दलों की कठपुतलियों की तरह काम करते हैं. सत्ता बदलते ही दूसरे दलों की भाषा बोलने लगते हैं. दरअसल जब तक कामकाज और पारदर्शिता को लेकर कानूनी तौर पर सरकारी मशीनरी की जिम्मेदारी तय नहीं होगी तब तक अदालतों के आदेशों की मार नौकरशाही पर पड़ती रहेगी. सरकारें यदि नाकार सरकारी तंत्र की जिम्मेदारी तय कर दें तो गवर्नमेंट और नौकरशाही को ऐसी शर्मिंदगी का सामना नहीं करना पड़ेगा.

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