इन क्रिकेटरों ने इंटर से भी कम पढ़ाई करके क्रिकेट एजुकेशन को दे दी तिलांजलि
नई दिल्ली। भारत में क्रिकेट का खेल आज पेशेवर रूप ले चुका है। राष्ट्र में इस समय ऐसे कई क्रिकेटर हैं जिन्होंने इंटर तक ही या इससे भी कम पढ़ाई की और फिर क्रिकेट की खातिर एजुकेशन को तिलांजलि दे दी। कांपिटीशन इतना बढ़ चुका है कि आज यदि किसी प्लेयर को क्रिकेट और पढ़ाई में से एक चीज चुनने को बोला जाए तो उसकी अहमियत खेल ही होगी। लेकिन क्या आप विश्वास करेंगे कि बीते समय में एक क्रिकेटर ऐसा भी रहा है जिसमें इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने के लिए भारतीय टीम की ओर से दो टेस्ट खेलने के बाद ब्रेक ले लिया था। पांच वर्ष के ब्रेक में इसने इंजीनियरिंग डिग्री हासिल की और फिर भारतीय टीम में न सिर्फ़ वापसी की बल्कि कई वर्ष तक राष्ट्र का अग्रणी गेंदबाज रहा।
यहां हम बात कर रहे हैं स्पिनर ईरापल्ली प्रसन्ना (Erapalli Prasanna) की, जो 1960-70 के दशक में भारतीय क्रिकेट में कामयाबी का पर्याय रही ‘स्पिन चौकड़ी’ के प्रमुख सदस्य रहे। यह क्रिकेट का वह दौर था जब हिंदुस्तान के चार स्पिनरों – बिशन सिंह बेदी, भगवत चंद्रशेखर,ईरापल्ली प्रसन्ना और एस वेंकटराघवन का विपक्षी बैटरों पर ‘राज’ चलता था। ये चारों स्पिनर, टीम इण्डिया की कई बेहतरीन जीत के हीरो रहे।
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इंग्लैंड के विरुद्ध 1962 में किया था टेस्ट डेब्यू
ईरापल्ली अनंतराव श्रीनिवास प्रसन्ना का जन्म 22 मई 1940 को कर्नाटक के बेंगलोर (अब बेंगलुरु) में हुआ था। दाएं हाथ से ऑफ स्पिन गेंदबाजी करने वाले प्रसन्ना पढ़ाई में भी अच्छे थे। पढ़ाई के साथ-साथ क्रिकेट खेलते हुए उन्होंने जल्द ही बेहतरीन स्पिनर के तौर पर ख्याति हासिल कर ली। प्रसन्ना ने 1961 में मैसूर की ओर से हैदराबाद के विरुद्ध रणजी डेब्यू किया।अपने शुरुआती मैच में ही उन्होंने तीन विकेट हासिल किए। इसके बाद उनके प्रदर्शन में लगातार निखार आता गया। प्रसन्ना ने अपना टेस्ट डेब्यू जनवरी 1962 में इंग्लैंड के विरुद्ध चेन्नई (तब मद्रास) में किया। हालांकि मैच में वे सिर्फ़ एक विकेट हासिल कर सके थे। वैसे इस ‘कमजोर’ प्रदर्शन के बावजूद 1962 में ही वेस्टइंडीज का दौरा करने वाली भारतीय टीम में भी उन्हें चुन लिया गया। बेटे का भारतीय टीम में चयन परिवार के लिए खाास मौका होता है लेकिन प्रसन्ना के पिता इससे पूरी तरह खुश नहीं थे।
उन्हें इस बात का डर था कि क्रिकेट में व्यस्त होने से प्रसन्ना इंजीनियरिंग की पढ़ाई नहीं कर पाएंगे। वे प्रसन्ना को वेस्टइंडीज जाने की इजाजत देने को लेकर भी असमंजस में थे। ऐसे समय भारतीय क्रिकेट कंट्रोल बोर्ड (BCCI) के तत्कालीन सचिव एम चिन्नास्वामी ने प्रसन्ना के पिता को किसी तरह मनाया। पिता ने इसी शर्त पर इजाजत दी कि वेस्टइंडीज से लौटकर बेटा इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करेगा जिसे ईरापल्ली प्रसन्ना से स्वीकार किया।
इंडीज दौरे से लौटकर लिया ब्रेक, इंजीनियरिंग डिग्री हासिल की
वेस्टइंडीज के विरुद्ध पांच टेस्ट की इस सीरीज में प्रसन्ना को सिर्फ़ किंग्स्टन के दूसरे टेस्ट में ही खेलने का मौका मिला जिसमें उन्होंने 122 रन देकर तीन विकेट लिए। इस टेस्ट सीरीज में हिंदुस्तान को 5-0 की करारी हार का सामना करना पड़ा था। अप्रैल 1962 में जब यह दौरा पूरा कर प्रसन्ना वापस लौटे तो उनके लिए स्थिति बदल चुकी थी। पिता का मृत्यु हो गया था, ऐसे में पिता से किए वादे को निभाते हुए प्रसन्ना ने क्रिकेट से ब्रेक लेने का बड़ा निर्णय किया और इंजीनियर की पढ़ाई की। इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल करने के बाद उन्होंने 5 वर्ष बाद जनवरी 1967 में टेस्ट क्रिकेट में अपनी ‘दूसरी पारी’ प्रारम्भ की। 1978 तक चले इंटरनेशनल करियर में प्रसन्ना ने 49 टेस्ट खेले और 30.38 के औसत से 189 विकेट हासिल किए। 140 रन देकर आठ विकेट उनका पारी का और 140 रन देकर 11 विकेट मैच का सर्वश्रेष्ठ गेंदबाजी प्रदर्शन रहा जो उन्होंने 1976 में न्यूजीलैंड के विरुद्ध वेलिंगटन टेस्ट में किया था।
सर्वश्रेष्ठ ऑफ स्पिनरों में शुमार लेकिन केवल 49 टेस्ट खेले
प्रसन्ना को राष्ट्र के बेहतरीन ऑफ स्पिनरों में शुमार किया जाता है। हालांकि एक दशक से अधिक समय तक चले करियर में वे 49 टेस्ट ही खेल सके। इसका कारण 1962 में टेस्ट डेब्यू के बाद इंजीनियरिंग डिग्री के लिए ब्रेक लेना और ऑफ स्पिनर के तौर पर वेंकटराघवन को उन पर तरजीह मिलना था। उनके दौर की भारतीय टीम में बतौर स्पिनर बिशन सिंह बेदी और बी चंद्रशेखर का चयन निश्चित होता था जबकि ऑफ स्पिनर के तौर पर वेंकटराघवन और प्रसन्ना के बीच ‘मुकाबला’ रहता था जिसमें कई बार ‘वेंकट’ बाजी मार जाते थे। हालांकि कई क्रिकेट समीक्षक प्रसन्ना को वेंकट से बेहतर स्पिनर मानते थे। स्पिन चौकड़ी के इन चारों दिग्गजों ने एक साथ बहुत कम मैच खेले।
प्रसन्ना ने एक साक्षात्कार में बोला था, ‘एक क्रिकेटर के लिए प्राइम पीरियड तब होता है जब वह 27 से 28 वर्ष का होता है। जब मेरे पिताजी का मृत्यु हुआ तब मैं 22 साल का था। यदि मैं उन पांच सालों में हिंदुस्तान के लिए खेलता तो पता नहीं और कितने विकेट हासिल करता।’ कप्तान के तौर पर मंसूर अली खान पटौदी ने प्रसन्ना की क्षमता का सबसे बेहतर इस्तेमाल किया। इस ऑफ स्पिनर ने अपने 189 में से 116 विकेट, पटौदी की कप्तानी में ही हासिल किए। ‘टाइगर’ के नाम से लोकप्रिय पटौदी ने एक बार प्रसन्ना की प्रशंसा करते हुए बोला था, ‘प्रस (प्रसन्ना का निकनेम) साथ हो तो आप राष्ट्र में कहीं भी विकेट की आशा कर सकते हैं।’
बैटरों को ‘छकाकर’ हासिल करते थे विकेट
विपक्षी बैटरों को अपनी फ्लाइट के जाल में उलझाकर विकेट लेने में प्रसन्ना माहिर थे। गेंद की फ्लाइट पर उनका कमाल का कंट्रोल था। वे फ्लाइटेड गेंद फेंककर, बैटर को शॉट खेलने के लिए उकसाते थे। ‘शिकार’ जब झांसे में आ जाता था तो एकाएक गेंद को लेंथ बदलकर बैटरों को स्टंप या कैच आउट कराते थे। आर्म बॉल फेंकने में वे बेजोड़ थे। हिंदुस्तान के पूर्व कप्तान बिशन सिंह बेदी भी प्रसन्ना की गेंदबाजी के प्रशंसक थे। बेदी और प्रसन्ना अच्छे दोस्त थे और विकेट हासिल करने के बाद इन दोनों के जश्न मनाने का अंदाज भी अनूठा होता था। ऑस्ट्रेलिया के पूर्व कप्तान इयान चैपल ने प्रसन्ना की प्रशंसा में बोला था कि उन्होंने अपने करियर में जितने भी स्पिनरों का सामना किया उसमें प्रसन्ना सर्वश्रेष्ठ थे।
20 टेस्ट में पूरे किए थे 100 विकेट, बाद में अश्विन ने तोड़ा रिकॉर्ड
प्रसन्ना ने पहले दो टेस्ट मैच में केवल चार विकेट चटकाए थे लेकिन जब उन्होंने पांच वर्ष बाद 1967 में वापसी की तो विकेटों का अंबार लगा डाला। महज 20 टेस्ट मैचों में 100 विकेट पूरे करके वे टेस्ट में विकेटों का सबसे तेज ‘शतक’ लगाने वाले भारतीय बने थे। कई साल बाद एक अन्य ऑफ स्पिनर रविचंद्रन अश्विन (18 टेस्ट) ने इस रिकॉर्ड को अपने नाम किया। प्रसन्ना की सबसे बड़ी खूबी यह थी कि स्पिन बॉलिंग के लिए कम मददगार पिचों पर भी वे विकेट हासिल करने में सफल रहते थे। विदेशी मैदानों पर भी उनका गेंदबाजी रिकॉर्ड बेहतरीन है।