कभी पहाड़ के लोक जीवन का अहम हिस्सा होते थे मेले, अब बदल गया स्वरूप
उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्रों में मेलों का विशेष महत्व है। पहाड़ की लोक संस्कृति और लोक जीवन में मेलों का आयोजन और इस दौरान धार्मिक अनुष्ठान, देव पूजा प्राचीन समय से चली आ रही है, लेकिन बदलते समय के साथ पहाड़ की इन लोक पंरपराओं में तेजी से परिवर्तन भी देखने को मिल रहा है। उत्तरकाशी, अल्मोड़ा हो या चमोली, रूद्रप्रयाग इन दिनों हर स्थान छोटे-बड़े मेलों का आयोजन किया जाता है। अक्सर अप्रैल माह (बैशाख) को पहाड़ों में मेलों के महीने के नाम से भी संबोधित किया जाता है।
स्थानीय महिपाल सिंह रावत बताते हैं कि मेलों के स्वरूप में कई परिवर्तन देखने को मिल रहे हैं। कहते हैं कि पहले बैशाख के महीने में क्षेत्र के इर्द-गिर्द से देव स्नान के लिए आते थे, उसके बाद ध्याणी (बहु-बेटियाँ) देवताओं को भेंट (पूजा) करने के बाद मेले में शिरकत करती थी और खरीदारी करते थे।
मेलों से गायब हो रहा धार्मिक महत्व
महिपाल सिंह रावत बताते हैं कि पुराने समय में संचार और परिवहन के साधन सीमित थे, ऐसे में पर्वतीय क्षेत्रों में एक दूसरे से मिलने का ठीक समय मेले ही होते थे। बैशाख महीने में पहाड़ों में काम कम रहता है। ग्रामीणों को खेती बाड़ी के काम से फुर्सत मिली रहती है। ऐसे में इस समय मेलों का आयोजन होता था। जिसमें दूर-दराज के गांवों से लोग पहुंचते थे, देव दर्शन करने के बाद आवश्यकता का सामान मेलों में लगे दुकानों से खरीदते थे। आगे कहते हैं कि अब हालात में काफी परिवर्तन आ गया है संचार और परिवहन के साधनों में तेजी आई है। अब मेलों का आयोजन सिर्फ़ सांस्कृतिक कार्यक्रमों तक सीमित रह गया है। अब पहाड़ों में आयोजित होने वाले मेलों में धार्मिक महत्व गायब सा हो रहा है।
पहाड़ की परंपराओं को जीवंत रखने की आवश्यकता
महिपाल सिंह रावत बताते हैं कि इन मेलों में गरीब ग्रामीण लोगों को आजीविका का एक साधन मिलता था। अपने द्वारा हस्तनिर्मित वस्तुओं को मेलों में लाते थे, साथ ही अन्य आवश्यकता के सामान भी कम दामों पर लोगों को मिल पाता है। हालांकि अभी भी पुरानी परंपराओं को जीवित रखने का कोशिश कई उत्साही लोगों द्वारा किया जा रहा है। कहते हैं कि समय के साथ मेलों के स्वरूप में परिवर्तन आना स्वभाविक है, लेकिन बदलते समय के साथ कैसे पहाड़ की लोक पंरपराओं को जीवित रखा जाये, इस बारे में सोचना जरूरी है।