उत्तराखण्ड

उत्तराखंड के प्रमुख वाद्यय यंत्र हुड़का हो या ढ़ोल इन्हें बजाने वाले पहुंचे विलुप्त कगार पर

पौड़ी गढ़वाल किसी भी समाज की संस्कृति का सबसे बड़ा द्योतक वहां का लोक कलाकार होता है जो वहां की संस्कृति रीति-रिवाज से लेकर परंपराओं को अपने हुनर के माध्यम से देश-विदेश तक पहुंचाता है उत्तराखंड के ऐसे ही लोक कलाकार जो कभी अपनी कला के लिए जाने जाते थे आज बदलते समय और आधुनिकता की चकाचौंध में कहीं गायब से हो गये हैं

उत्तराखंड के प्रमुख वाद्यय यंत्र हुड़का हो या ढ़ोल इन्हें बजाने वाले अब विलुप्त होने के कगार पर पहुंच चुके हैं वहीं नुक्कड़ नाटकों, पहाड़ी गीतों से जन जागरण करने वाले कलाकार भी अब आधुनिकता के दौर में पीछे छूट रहे हैं ऐसे में इन कलाकारों की आशा है कि उन्हें भी ऐसा अवसर दिया जाए ताकि वे अपनी विद्या का प्रयोग कर पहाड़ की संस्कृति को संरक्षित करने के साथ इस विद्या को नई पीढ़ी तक भी पहुंचा सके इसके लिए वे गवर्नमेंट से मांग भी करते है कि उन्हें वर्ष में कम से कम 10 से अधिक दिनों का कार्य दिया जाए

उत्तराखंड राज्य आंदोलन में क्षेत्रीय कलाकरों की भूमिका
भक्ति शाह बताते हैं कि वें 1993 से हुडका वादन में कार्य कर रहे हैं, बताते हैं कि उत्तराखंड राज्य आंदोलन में क्षेत्रीय कलाकरों की भी अहम किरदार रही थी लेकिन आज लोक कलाकार उपेक्षा का दंश झेल रहे हैं ढोल-ढमाऊ उत्तराखंड की लोक संस्कृति में विशेष महत्व रखता है शुभ कार्यो में ढोल बजाना जरूरी होता है देवताओं के आवहान से लेकर फसल की कटाई में ढोल का अपना एक अलग महत्व है, लेकिन अब ढोल बजाने वाले औजी ही विलुप्त हो रहे हैं इसके पीछे मार्डन कल्चर एक बड़ी वजह है भक्ति शाह बताते हैं कि ढोल सागर की विद्या सिर्फ़ उत्तराखंड में ही देखने को मिलती है, लेकिन ये विद्या भी अब विलुप्त होने की कगार पर है

आधुनिकता की चकाचौंध में पीछे छूटे लोक कलाकार
नुक्कड़ नाटकों के माध्यम से लोगों को सतर्क करने वाले सुनील कुमार का बोलना है कि पहले उन्हें काफी कार्य मिलता था जगह-जगह चौपाल, या नुक्कड़ नाटक कर वें जनता को सतर्क करने का कार्य करते थे लेकिन वर्तमान में बदलते दौर और प्राद्योगिकी में आए परिवर्तन के कारण उनका रोजगार समाप्त होने की कगार पर है

साल में 5-10 प्रोग्राम मिलना हुआ मुश्किल
सरस्वती सांस्कृतिक कला मंच के अध्यक्ष राम भक्ति लाल बताते हैं कि उन्हें जब निर्देश मिलते हैं तो वें और उनकी टीम गांव-गांव जाकर सामाजिक बुराई के विरुद्ध लोगों को जागृत करते हैं उन्होनें राज्य आंदोलन, जन-जागरण, बेटी बचाओं बेटी पढ़ाओ, सड़क सुरक्षा, हिमालय बचाने समेत अनेक मुद्वों पर गीत लिखे हैं जो जगह-जगह जाकर जनता को सुनाया जाता था, हेमवती नंदन बहुगुणा से लेकर वर्तमान तक के नेताओं के साथ उन्होनें कार्य किया है संगीत ही उनकी पारंपरिक धरोहर है इसी से वे जीवीकोपार्जन करते हैं पहले उन्हें वर्ष में 20 से अधिक प्रोग्राम मिल जाते थे अब 5-10 मिलना भी कठिन है

लोक कलाकारों को मुख्यधारा से जोड़ना जरूरी
देवभूमि उत्तराखंड अपने आध्यात्म और संस्कृति के लिए जानी जाती है यही देवभूमि को अलग बनाती है ऐसे में यदि इन वाद्य यंत्रों का वादन करने वाले आदमी और लोक कलाकारों का ही अस्तित्व खतरे में आ गया तो पहाड़ की संस्कृति का भी ह्रास होना प्रारम्भ हो जायेगा हालांकि गवर्नमेंट अपने स्तर पर प्रदेश के लोक कलाकारों को भत्ता देती है लेकिन बदलते समय के साथ इन्हें मुख्यधारा से भी जोड़े रखना जरूरी है

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