जानिए, उत्तराखंड की बहू-बेटियों के लिए क्यों खास है चैत्र महीना
भिटोली कुमाऊंनी शब्द है, जिसका अर्थ है भेंट या मुलाकात। उत्तराखंड में चैत्र या चैत का महीना आते ही ब्याही गई बेटियों को मायके की याद सताने लगती है। आखिर याद आए भी क्यों न, इन्हीं दिनों तो माता-पिता या भाई भिटोली लेकर उसके ससुराल पहुंचता है। पुराने समय में जब पहाड़ के दूर गांव में ब्याही गई बेटियां अपने मायके के लोगों से मिल नहीं पाती थीं और मायके पक्ष के लोग भी अपनी बेटियों से नहीं मिल पाते। ऐसे में बुजुर्गों ने एक परंपरा बनाई थी। परंपरा के मुताबिक चैत्र महीने में ससुराल पक्ष का आदमी ब्याही गई बेटी के ससुराल जाएगा और उसे भिटोली देगा। दरअसल, भिटोली एक त्योहार न होकर सामाजिक परंपरा है जो बदलते समय के साथ एक लोकपर्व का रूप ले चुकी है। भिटोली में मायके के बने पकवान (कलेऊ), नए वस्त्र, मिठाई आदि शामिल होती है।
भाई लेकर जाता है भिटोली
श्रीनगर गढ़वाल निवासी सामाजिक सरोकारों से जुड़ी गंगा असनोड़ा थपलियाल मीडिया को बताती हैं कि यह सिर्फ़ लोकपर्व नहीं है। यह ब्याही गई बेटियां ‘ध्याण’ के लिए एक प्रबंध है। चैत्र महीने में ब्याही गई बेटियों का भाई उनके लिए भिटोली लेकर जाता है। यदि किसी का भाई नहीं है, तो माता-पिता भिटोली लेकर जाते हैं। वह कहती हैं कि एक समय में पहाड़ की अर्थव्यवस्था बहुत कमजोर हुआ करती थी। ऐसे में ब्याही गई बेटी ससुराल में अच्छे से रह पा रही है या नहीं। यह देखने के लिए भाई बहन के ससुराल जाता था। साथ ही उपहार स्वरूप कपड़े, कलेऊ, भेंट आदि भी लेकर जाता था। और उसकी कुशलक्षेम पूछता था। इसे एक तरह की प्रबंध या परंपरा बोला जा सकता है।
लोकगीतों में भी भिटोली का जिक्र
‘घुघूती घुरैण लगी मेरो मैत की, बौड़़ी-बौड़ी ऐगे ऋतु, ऋतु चेत की’ उत्तराखंड के लोक गीतों में भी भिटोली, चैत्र के महीने और ब्याही गई बेटियों की वेदना को बड़ी ही खूबसूरती के साथ पिरोया गया है। लेकिन, बदलते समय के साथ संचार और परिवहन के साधनों ने मायके और ससुराल के बीच की दूरी को भर दिया है। अब चैत्र मास की इस परंपराओं का वैसा महत्व नहीं रह गया, जैसा आज से दो दशक पहले तक था।
पैसे देने तक सीमित हुई ‘भिटोली‘
गंगा असनोड़ा थपलियाल आगे कहती हैं कि भिटोली की प्रबंध में बहुत बदलाव आ गया है। एक समय था जब कपड़े खरीदकर बेटी को दिए जाते थे। साथ ही घर में रोंट, खजूर, पूरी, पकौड़ी बनाकर ले जाया जाता था। लेकिन, आज की प्रबंध में पूरी तरह बदलाव देखने को मिलता है। ज्यादातर अब भिटोली में पैसे देने का प्रचलन बढ़ गया है। क्योंकि, अब न तो परिवहन, संचार के साधनों की कमी है। जिससे ब्याही गई बेटी मायके या मायके पक्ष का आदमी कभी भी ससुराल जा सकता है। साथ ही रोंट, कलेऊ बनाने की परंपरा अधिकतर क्षेत्रों में समाप्त होती सी दिख रही है